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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
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इति। अथान्धकारावष्टब्धनिशीथिनीसमयेऽपि भास्करकरसम्भवे नक्तंचराणामिव नराणामपि दूरदर्शनं स्यात् । न, सन्तोऽपि तदा तत्करा न नराणां रूपदर्शनजननप्रत्यलाः यथा ते एव वासरे उलूकादीनाम्, भावशक्तीनां विचित्रत्वात्। तस्मादनुपलम्भात् क्षपायां यथा न भास्करकरास्तथा नायना रश्मयोऽन्यदेति स्थितम् ।
यदपि परेणाऽत्रोक्तम्— दूरस्थितकुड्यादिप्रतिफलितानामन्तराले गच्छतां प्रदीपरश्मीनां सतामप्यनुपलम्भ5 दर्शनाद् नानुपलम्भात् तदभावसिद्धि:' इति तदप्यनेनैव निरस्तम्; रविरश्मीनामपि क्षपायामभावाऽसिद्धिप्रसक्तेः । किञ्च योगिनः आत्ममनः संयोगो यदा सदसद्वर्गालम्बनमेकं ज्ञानं जनयति तदा सकलसदसद्वर्गस्तस्य चेन्न सहकारी तर्हि 'अर्थवत् प्रमाणम्' (वात्स्या. भा. पृ. १ ) इत्यत्र “अर्थ: सहकारी यस्य विशिष्टप्रमिती प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरं तदर्थवत् प्रमाणम् ” ( ) इति विरुध्यते । सहकारी चेदसौ देशाद्यन्तरीतोऽपि, तर्हि तत्कुड्यादेः प्रभासुरतयोत्पत्तौ प्रदीपो देशव्यवहितोऽपि सहकारीति नान्तराले तद्रश्मिसिद्धिः । ततो न 10 तैरनुपलम्भव्यभिचारः । अत एव नाप्यनुमानम् ।
है कि रात्री को सूर्यकिरण नहीं होते ।
जैन :- नहीं रे ! पदार्थों की शक्तियाँ तरह तरह की भिन्न होती है, जैसे ही दिन में सूर्यकिरण के होने पर भी उल्लू को दिन में कुछ भी नही दिखता, मनुष्य आदि को दिखता है, वैसे यह भी सम्भव हो सकता है कि अनुमित सूर्यकिरण रात्री में होते हुए भी मनुष्यादि को नहीं दिखता, मार्जार 15 आदि को दिखता है । फिर भी यदि अनुपलब्धि के कारण रात्री को सूर्यकिरण का स्वीकार आप नहीं करते तो अनुपलब्धि के कारण नेत्र के किरणों का दिन में भी स्वीकार मत करो ।
[ प्रदीपरश्मि की अन्तराल में अनुपलब्धि की समीक्षा ]
कोई यदि ऐसा कहे राजमार्ग की एक ओर ऐसा मकान है जिस की बारी से तदन्तर्गत प्रदीप की किरणें बाहर निकल कर, ठीक उसी मकान के सामने राजमार्ग की दूसरी ओर रहे हुए 20 मकान की दिवार को स्पर्श करती हैं तब रात्रि के अन्धकार में राजमार्ग के ऊपर चलते हुए आदमी राजमार्ग के मध्यभाग से जानेवाली किरणें सद्भूत होने पर भी नहीं दिखाई देती हैं । यहाँ सिर्फ अनुपलब्धिमात्र से किरणों का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। इसी तरह दिन में नेत्र किरणों की अनुपलब्धिमात्र से उन का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता ।
ऐसा कथन भी पूर्वोक्त तरीके से निरस्त हो जाता है, क्योंकि इस तरह जैन भी कहेंगे कि 25 रात्री में सूर्य के किरणों की अनुपलब्धिमात्र से उन का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता ।
दूसरी बात : राजमार्ग के मध्य भाग में अनुपलब्धि से प्रदीपरश्मि का अभाव निम्नोक्तप्रकार से सिद्ध कर सकते हैं। योगीपुरुषों को अपने आत्म-मन संयोग से दूरस्थ सद् और असत् ( या अनागत) अर्थवर्ग का एक ज्ञान उत्पन्न होता है । यहाँ प्रश्न यह है कि जिन जिन सद्-असत् अर्थवर्ग का एक प्रमाणभूत ज्ञान होता है वह सकल अर्थ वर्ग, ज्ञानजनक आत्ममनसंयोग का सहकारी 30 मानेंगे या नहीं मानेंगे ? यदि नहिं मानेंगे तो वात्स्यायन भाष्य के 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस विधान के साथ विरोध प्रसक्त होगा । विरोध है इस प्रकार :- प्रमाण 'अर्थवत् होता है' इस भाष्योक्ति की व्याख्या में कहा गया है कि विशिष्ट प्रमिति के निष्पादन में जिस का अर्थ सहकारी बनता है
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