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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २८१ शलाकादिकं न प्रकाशयतीति दृष्टम्। यैरपि 'गोलकान्तर्गतं तेजोद्रव्यमस्ति तदाश्रितास्ते' इत्यभ्युपगमं तेषामपीदं दूषणं समानम्। न हि काचकूपिकान्तर्गताः प्रदीपादिरश्मयस्ततो निर्गच्छन्तस्तद्योगिनमर्थं न प्रकाशयन्ति। तदेवं रश्मीनामसिद्धेर्न ते चक्षुःशब्दाभिधेयाः। अथ रसनादयो बाह्येन्द्रियत्वात् प्राप्तार्थप्रकाशका उपलब्धाः। बाह्येन्द्रियं च चक्षुः, ततः तदपि प्राप्तार्थ-प्रकाशकम् । न च गोलकस्य बाह्यार्थप्राप्तिः सम्भविनीति पारिशेष्यात् तद्रश्मीनां तत्प्राप्तिरिति 5 रश्मिसिद्धिः । न, अत्यासन्नमलाञ्जनशलाकादेः प्रकाशप्रसक्तेः । किञ्च, यदि गोलकान्निर्गत्य बाह्यार्थेनाभिसम्बध्य तद्रश्मयोऽर्थं प्रकाशयन्ति तीर्थं प्रत्युपसर्पन्त: उपलभ्येरन्, रूप-स्पर्शविशेषवतां तैजसानां वल्यादिवत् सतामनुपलम्भे निमित्ताभावात्, न चोपलभ्यन्ते इत्युपलब्धिलक्षणप्राप्तानामनुपलम्भादसत्त्वम् । ‘अनुद्भूतरूपस्पर्शत्वादनुपलभ्यास्ते' इति चेत् ? किं पुनरनुद्भूतरूप-स्पर्श तेजोद्रव्यमुपलब्धं येनैवं कल्पना भवेत् ? सिद्धान्ती :- ऐसा मानेंगे तो किरणसमुदायरूप चक्षु का गोलक के साथ संनिकर्ष बन जाने से 10 गोलक की ऊपरी सतह पर जो कामलादि (पित्त का आवरण आदि) होगा उस का भी प्रत्यक्ष हो जायेगा, जैसे प्रदीप के किरण प्रदीपाश्रित होते हैं तो प्रदीप से संलग्न बी-शलाका आदि का भी प्रकाशन करते ही हैं। यही दूषण उन लोगों की मान्यता पर भी लगेगा जो मानते हैं कि गोलक के भीतर में जो तेजोद्रव्य रहता है तदाश्रित किरण ही इन्द्रिय है। यहाँ भी प्रसिद्ध है कि काच के फानस के अन्तर्गत जो प्रदीपादि के किरण होते हैं वे बाहर आते समय फानुस के काच (या 15 उस के पर कोई दाग) आदि के साथ उन का संनिकर्ष होने पर काच आदि का प्रकाशन करते हीं हैं – इसी तरह गोलक अन्तर्गत तेजोद्रव्य के किरण भी बाहर आते समय गोलक के साथ संनिकर्ष बन जाने से गोलक या उस के पर रहे हुए कामलादि का प्रकाशन कर देगा। निष्कर्ष :- उक्त दोषों के कारण, चक्षु (अवयवी) की या चक्षुरूप किरणों की प्रमाण से सिद्धि न हो पाने से किरणों को चक्षुशब्द का वाच्यार्थ नहीं कहा जा सकता। 20 [ संनिकृष्ट अर्थ द्योतक बहिरिन्द्रय का विचार ] नैयायिक :- बाह्येन्द्रियात्मक होने से रसना-घ्राण आदि इन्द्रियाँ संनिकृष्ट अर्थ की प्रकाशक होती है यह सर्वविदित है, गोलक (नेत्र) भी बाह्येन्द्रिय है फिर भी साक्षात् गोलक की बाह्यार्थ के साथ प्राप्ति (संनिकर्ष) नहीं होती, न तो गोलक बाह्यार्थ के पास जाता है न तो बाह्यार्थ गोलक को मिलने आता है, तब परिशेषरूप में यही कल्पना मेल खाती है कि गोलक के किरण अर्थ को जा कर 25 मिलते हैं। अब तो किरणों की सिद्धि माननी पडेगी। सिद्धान्ती :- नहीं। अगर गोलक रश्मि के माध्यम से प्राप्तार्थप्रदर्शन करेगा तो गोलक के अतिनिकटवर्ती मल या अञ्जन अथवा शलाका आदि का भी प्रदर्शन प्रसक्त होगा। दूसरी बात :यदि गोलक से निकल कर बाह्यार्थ को मिल कर रश्मियाँ अर्थ का प्रदर्शन करती हैं - तो गोलक से निकलते हुए अर्थ के प्रति गति के कारक रश्मियों का दर्शन (प्रत्यक्ष) निकटवर्ती अन्य किसी 30 सज्जन को होना चाहिये। अग्नि आदि की तरह तेजोमय एवं रूप-स्पर्शविशेष गुणवाले रश्मियाँ सज्जनों को न दिखाई देने का कोई विशेष निमित्त (=प्रतिबन्धक) नहीं है। हकीकत है कि नहीं दिखते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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