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________________ २८० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ __ अथ चक्षुःशब्देनात्र तद्रश्मयोऽभिधीयन्ते इति न प्रागुक्तदोषावकाशः। न, तेषामसिद्धेः, इतरथाऽस्यानुमानस्य वैफल्यापत्तेः, आश्रयासिद्धो हेतुः। अथात एवानुमानात् तत्सिद्धेर्नायं दोषः। न, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि- तद्रश्मिसिद्धावाश्रयासिद्धत्वदोषपरिहारः तस्मिंश्च सत्यतो हेतोस्तत्सिद्धिः, इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अत एव स्वरूपाऽसिद्धिरपि हेतोः, तेषामसिद्धौ तदाश्रयबाह्येन्द्रियत्वाऽसिद्धेः । यदि पुनर्गोलकाद् बहिर्भूता रश्मयश्चक्षुःशब्दवाच्या अर्थप्रकाशकाः तर्हि गोलकस्याऽञ्जनादिना संस्कार उन्मीलनादिकश्च व्यापारो वैयर्थ्यमनुभवेत्। अथ गोलकाश्रयास्ते इति तन्निमीलने असंस्कारे वा तेषामपि स्थगनमसंस्कृतिश्चेति विषयं प्रति गमनं तत्प्रकाशनं च न स्यात् अतस्तदर्थं तदुन्मीलनं तत्संस्कारश्च न वैयर्थ्यमनुभवेत्- तर्हि गोलकानुषक्तकामलादेः प्रकाशकत्वं तेषां स्यात्, न हि प्रदीप: स्वलग्नं [चक्षुरश्मि का समाधान निरर्थक ] 10 नैयायिक :- ‘चक्षुः' शब्द से हमें यहाँ के किरण अभिप्रेत हैं, उन का विषय के साथ संनिकर्ष सिद्ध होने से आश्रयासिद्धि आदि दोष निरवकाश हैं। सिद्धान्ती :- चक्षु के किरण प्रमाणसिद्ध न होने से आप का बचाव निष्फल है। यदि किरण सिद्ध होते और उन का संनिकर्ष सिद्ध होता तो उक्त अनुमान (चक्षु में प्राप्तार्थप्रकाशकत्वसाधक प्रयोग) निष्फळ बन जायेगा, सिद्धसाधन दोष होने से। किरणस्वरूप चक्षु सिद्ध न होने पर हेतु (बहिरिन्द्रियत्च) 15 में आश्रयासिद्धि दोष तदवस्थ रहेगा। यदि इसी अनुमान से किरणों की सिद्धि करेंगे – प्राप्तार्थप्रकाशकत्व की इस अनुमान से सिद्धि होने पर उस की अन्यथानुपपत्ति से किरणों की सिद्धि होगी - तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा - किरणों की सिद्धि (याने पक्ष की सिद्धि) होने पर आश्रयासिद्धिदोष के परिहार के द्वारा प्राप्तार्थप्रकाशकत्व सिद्ध होगा और प्राप्तार्थप्रकाशकत्व की सिद्धि होने पर नेत्र के किरणों की सिद्धि होगी। चक्षु की सिद्धि किरणरूप में न होने पर उस में बाह्येन्द्रियत्व की भी 20 सिद्धि न होने से हेतु में स्वरूपासिद्धि दोष भी लगेगा। यदि कहा जाय :- गोलक किन्तु गोलक के बाह्य देश में अर्थ से गोलकपर्यन्त जो (सौर या चान्द्र) किरणसमुदाय है वही चक्षु शब्द का वाच्यार्थ है जिस के संनिकर्ष से अर्थप्रत्यक्ष होता है - तो यह भी गलत है. क्योंकि तब तो गोलक और किरणसमुदाय दोनों ही भिन्न ईकाइ हैं, तो लोग इन्द्रिय को सतेज बनाने के लिये जो अञ्जनप्रयोग करते हैं वह तो गोलक के ऊपर करते हैं किन्तु वह तो इन्द्रियरूप है नहीं, 25 फिर वह अञ्जनप्रयोग निरर्थक ठहरेगा। दूसरी बात, जब गोलक तो इन्द्रिय ही नहीं तब वह खुले या बंद रहे क्या फरक पडेगा ? इन्द्रिय तो बहिर्भूत किरणसमुदायरूप है। फलतः गोलक बंद रहने पर भी प्रत्यक्ष हो जाने से, गोलक का उन्मीलन भी व्यर्थ ठहरेगा। नैयायिक :- बाह्य किरणसमुदाय गोलकाश्रित ही रहता है, अतः गोलक निमीलित रहने पर किरणसमुदाय भी अवरुद्ध हो जाने से उस की विषय प्रति गति न होने से अर्थप्रकाशन रूप कार्य नहीं होगा, वह 30 तभी होगा जब गोलक खुला रहेगा, इस तरह गोलक का खुलापन व्यर्थ नहीं होगा। दूसरी बात, गोलक के संस्कार से ही गोलकाश्रित किरणों की सतेजता शक्य है, गोलक के संस्कार के विना किरणों की सतेजता शक्य नहीं है, इस तरह गोलक का अञ्जनादि से संस्कार भी व्यर्थ नहीं होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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