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________________ खण्ड-४, गाथा-१ प्रमाणम्” – इत्यादिरूपोऽयुक्तः। [प्रमाणस्वरूपमीमांसा ] तथाहि- ‘बोधः प्रमाणम्' इति वदन्तो वैभाषिकाः पर्यनुयोज्या:- किं बोधमात्रस्य प्रामाण्यम् आहोस्वित् बोधविशेषस्य ? यदि बोधमात्रस्य तदा तल्लक्षणप्रणयनमयुक्तम् व्यवच्छेद्याभावात्, अबोधस्य व्यवच्छेद्यत्वेऽपि संशय-विपर्ययादीनां बोधस्वभावत्वात् प्रमाणताप्रसक्तिः। न च संशयादीनामपि प्रमाणता, 5 होगा तब वस्तु में सामान्य - विशेष उभय धर्म के होते हुए भी विशेष वहाँ उपसर्जनीभूत यानी गौण अर्थात् अनुद्भूत रहेगा, जब कि अपना विषय सामान्य मुख्यरूप से वहाँ भासित होगा - ऐसा सामान्य ग्राही उपयोग, विशेष का अपलाप न करने पर ही प्रमाणभूत ठहरेगा। साकार उपयोग भी अपने विषयभूत विशेष को अवभासित करेगा तब अन्य सामान्याकार का अपलाप न करने पर ही वह प्रमाणभूत कहा जायेगा। दूसरे आकार के अपलाप करने पर वे दोनों ही प्रमाणता से च्युत हो 10 जायेंगे, क्योंकि वैसा कोई विशेष या सामान्य भाव ही नहीं है जो परस्परनिरपेक्ष हो - जिस का ग्रहण करनेवाला कोई उपयोग हो। वैसा उपयोग होगा तो विषयशून्य होगा, अत एव उसका प्रामाण्य युक्तिबाह्य हो जायेगा। वस्तुतः वैसे उपयोग का सत्त्व ही युक्तिबाह्य है जो एक सामान्यादि अंश से सर्वथा विनिर्मुक्त अन्य विशेष अंश का अवभासन करता है। नतीजतन, प्रमाण के बारे में एकान्तवादियों के जो विविध मत हैं वे सब अप्रमाण है -- 15 ___ कोई (प्रभाकरभट्ट) कहता है ज्ञान मात्र प्रमाण ही होता है। कोई सौत्रान्तिकादि वादी कहते हैं कि साकार (सविकल्प) ज्ञान ही प्रमाण है। कोई कुमारिलभट्टादि वादी कहता है - अनधिगत अर्थ का ग्राहक साकार ज्ञान ही प्रमाण है। कोई मीमांसक वादी यह भी कहता है कि अनधिगतार्थाधिगन्तृ ज्ञातृव्यापार प्रमाण है, वह ज्ञातृव्यापार यद्यपि परोक्ष है फिर भी अर्थगत होता है, अथवा स्वजन्यसंवेदनात्मक कार्य से भी ज्ञातृव्यापार अनुमित होता है। कोई वादी कहता है कि अनधिगत अर्थ का ग्राहक इन्द्रियादिप्रेरित व्यापार 20 प्रमाण है। कोई नैयायिकादि वादी कहता है ‘अव्यभिचारी आदिविशेषणों से विशिष्ट अर्थोपलब्धि' की जनक सामग्री या उसका एक अंश ही प्रमाण है - चाहे वह ज्ञानरूप हो या तो ज्ञानभिन्न यानी चक्षु आदि इन्द्रियरूप हो। सब अपने अपने अभिमत पदार्थ को अर्थोपलब्धि में प्रकृष्ट साधक होने से 'प्रमाण'तया स्वीकारते हैं। * प्रमाणतत्त्व की विविध व्याख्या - उन की मीमांसा * ___अब व्याख्याकार विस्तारपूर्वक प्रमाणतत्त्व की मीमांसा (पृष्ठ ३ से पृष्ठ ५०० तक) प्रारम्भ करते 25 हैं। बौद्ध मत की वैभाषिक शाखा निराकार बोध को 'प्रमाण' मानती है। सौत्रान्तिक शाखा साकार बोध को 'प्रमाण' मानती है, विज्ञानवादी शाखा अनेकज्ञान-संतानात्मक साकार बोध को ही प्रमाण मानती है किन्तु बाह्यार्थ की ज्ञान से पृथक् सत्ता का स्वीकार नहीं करती। 'बोध प्रमाण है' ऐसा बोलने वाले वैभाषिकमतवादियों की समीक्षा का प्रारम्भ करते हुए व्याख्याकार महर्षि कहते हैं कि वैभाषिकों *. अर्थो ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणोच्यते, प्रत्यक्षो न हि बाह्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैरादृतः । योगाचारमतानुगैरभिमता साकारबुद्धिः परा, मन्यन्ते बत मध्यमाः कृतधियः स्वस्थां परां संविदम् ।। अधिकार्थिभिः वैभाषिकादिमतस्वरूपं षड्दर्शनसमुच्यये बृहद्वृत्तौ (भारतीयज्ञानपीठप्रकाशिते पृ० ७२ तः ७५ पृष्ठमध्ये) सर्वदर्शनसंग्रहे चावलोकनीयम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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