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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ लोक-शास्त्रविरोधात् । लोकप्रसिद्धं च प्रमाणं व्युत्पादयितुमारब्धम् तत्र चेन्द्रियादेरपि प्रमाणतायाः प्रसिद्धर्बोधस्य प्रामाण्येऽव्याप्तिश्च लक्षणदोषः । न चाऽबोधरूपस्येन्द्रियादेर्लोकः प्रमाणतां न व्यपदिशति 'प्रदीपेनोपलब्धम्' 'चक्षुषा दृष्टम्' 'धूमेनावगतम्' इति लौकिकानां व्यवहारदर्शनात् । न चौपचारिकं तेषां प्रामाण्यम् प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वेन मुख्यप्रामाण्योपपत्तेः । अत एव शास्त्रान्तरेष्वपि विशिष्टोपलब्धिजनकस्य बोधाऽबोधरूप5 विशेषत्यागेन सामान्यतः “लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम्” [याझ्य० स्मृ०२ १२२] इत्युक्तिः।। किञ्च, 'प्रमीयतेऽनेन' इति प्रमाणशब्दः करणविशेषप्रतिपादकः, करणविशेषत्वं चास्य विशिष्टोपलब्धिस्वल्पकार्यजनकत्चेन, कार्यस्य चाऽव्यभिचारादिस्वरूपप्रमितिरूपत्वात् तज्जनकेनापरेण साधकतमेन भाव्यम् एकस्यैव स्वात्मनि करणक्रियाविरोधात्, ततो बोधाबोधल्पस्य प्रमितिजनकस्य प्रमाणतोपपत्तेः ‘बोधमात्रं प्रमाणम्' इत्यात्राऽव्याप्तिर्लक्षणदोषः प्राप्नोतीति स्थितम् । अथ बोधविशेषः प्रमाणम् तदाऽत्रापि वक्तव्यम्10 कः पुनरसौ बोधस्य विशेषः ? यद्यव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टत्वं तदा प्रमितिस्वभावस्य तस्य प्रमाणता को यह प्रश्न किया जाय - क्या बोधमात्र (यानी कोई भी ज्ञान) प्रमाण है या बोधविशेष (यानी विशिष्ट गुणशाली बोध) प्रमाण है ? बोधमात्र को प्रमाण माना जाय तो ‘मात्र' शब्द से किसी संशयादि का व्यवच्छेद अशक्य हो जाने से प्रमाण के लक्षण का व्युत्पादन-प्रयास निरर्थक ठहरेगा। हाँ, अबोधस्वरूप जो कोई होगा उस का व्यवच्छेद आप कर पायेंगे, लेकिन संशय-विपरीतज्ञान(भ्रम)-अनध्यवसाय आदि 15 का व्यवच्छेद न होने से उन में अतिव्याप्ति प्रसक्त होगी। अर्थात् वे भी बोधात्मक होने से उन को भूत मानने की समस्या खडी होगी। यदि आप संशयादि को भी प्रमाणभूत करार देंगे तो वह लौकिक-विरुद्ध एवं शास्त्रविरुद्ध कृत्य होगा, क्योंकि लोक में एवं शास्त्रीय व्यवहारों में संशयादि प्रमाण नहीं गिने जाते। अगर आप, लोक में कैसे प्रमाण की प्रसिद्धि है - इस तथ्य का प्रकाशन करना चाहते हैं - तो 20 आप के 'बोधमात्र प्रमाण है' इस लक्षण में अव्याप्ति दोष भी होगा, क्योंकि लोक तो इन्द्रिय या प्रदीप आदि को भी प्रमाण मानते हैं। इन्द्रियादि बोधरूप नहीं है फिर भी उन का लोक में प्रमाणरूप से व्यवहार होता है। आम जनता में ऐसा वाक्यप्रयोग दीखता है - दीपक से देख लिया, नेत्र से देखा, धूम से (अग्नि को) जान लिया। यदि आप कहें कि दीपकादि गौणरूप से - उपचार से प्रमाण हैं - तो यह अयोग्य है क्योंकि प्रमितिक्रिया में जो प्रकर्षरूप से साधक हो उसी को गौण नहीं मुख्यरूप से ही प्रमाण माना जाता 25 है, प्रदीपादि भी प्रमितिक्रिया के प्रकृष्ट साधक हैं - इसलिये मुख्यरूप से प्रामाण्य उस में संगत हो सकता है। यही कारण है - अन्य शास्त्रों में भी सामान्यरूप से विशिष्ट-उपलम्भ के साधक पदार्थों को प्रमाण घोषित किया है चाहे वह बोधात्मक हो या बोधभिन्न स्वरूप हो। - याच्य० स्मृति में कहा गया है - प्रमाण के तीन प्रकार हैं - लिखित (ताम्रपत्रादि), साक्षि और भुक्ति (यानी स्वानुभव कब्जा)। *बोधमात्र को प्रमाण मानने पर अव्याप्ति दोष* 30 यह भी जान लिजिये कि प्रमाणशब्द की व्युत्पत्ति हे जिस (करण) से प्रमिति की जाय । इस व्युत्पत्ति है. लिखितं - शासनादि लोके पत्रादि तत् प्रमाणम् । साक्षिणः - पुरुषाः प्रमाणम् । भुक्तिः - अनुभवः प्रमाणम् । प्रमेय क० पृ. ३ प्र. पं. ११, टि. ४०-४१-४२ । षड्द. स. बृ. वृत्तौ पृ.२०७ पं. १७-१९। (इति भूतपूर्वसम्पादकटीप्पण्याम् ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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