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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
(मूलम्) जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं।
दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ।।१।। (त.बो.वि.व्याख्या) द्रव्यास्तिकस्य सामान्यमेव वस्तु, तदेव गृह्यते अनेनेति ग्रहणं दर्शनमेतद् उच्यते। पर्यायास्तिकस्य तु विशेष एव वस्तु, स एव गृह्यते येन तद् ज्ञानम् अभिधीयते। ग्रहणं विशेषितम् 5 इति विशेषग्रहणमित्यभिप्रायः । द्वयोरपि अनयोर्नययोरेष प्रत्येकमर्थपर्यायः अर्थ = विषयं पर्येति = अवगच्छति
यः सोऽर्थपर्यायः ईदृग्भूतार्थग्राहकत्वमित्यर्थः। ___उपयोगस्य चानाकार-साकारते सामान्य-विशेषग्राहकते एव तत्र तत्राभिधीयेते। अविद्यमान आकारः भेदो ग्राह्यस्य अस्येत्यनाकारं दर्शनमुच्यते। सह आकारैर्ग्राह्यभेदैर्वर्त्तते यद् ग्राहकं तत् साकारं ज्ञानमित्युच्यते । निराकार-साकारोपयोगौ तूपसर्जनीकृततदितराकारौ स्वविषयावभासकत्वेन प्रवर्त्तमानौ प्रमाणम् न तु निरस्तेतराकारी, 10 तथाभूतवस्तुरूपविषयाभावेन निर्विषयतया प्रमाणत्वानुपपत्तेरितरांशविकलैकांशत्योपयोगसत्तानुपपत्तेश्च ।
तेनैकान्तवाद्यभ्युपगमः → “बोधमात्रं प्रमाणम्, साकारो बोधः, अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वविशिष्टः स एव ज्ञातृव्यापारोऽर्थदृष्टताफलानुमेयः संवेदनाख्यफलानुमेयो वा, अनधिगतार्थाधिगन्ता इन्द्रियादिसम्पाद्यः, अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा बोधख्योऽबोधरूपो वा साधकतमत्वात्
गाथार्थ :- जो सामान्य का ग्रहण - वही दर्शन है, विशेषित वही ज्ञान है। दोनों ही नयों 15 का यह अपना-अपना अर्थ अभिगम है।। १।।
* द्रव्यास्तिक - पर्यायार्थिक नयों के ग्राह्य का स्वरूप * द्रव्यास्तिक नय का ग्राह्य विषय है सामान्य जो कि वस्तुरूप है। सामान्य जिस से गृहीत हो ऐसे ग्रहण को दर्शन कहते हैं। पर्यायास्तिक नय का विषय है विशेषात्मक वस्तु । जिस से विशेष
गृहीत हो ऐसा ग्रहण ही ज्ञान कहा जाता है। मूल गाथा में 'विसेसियं णाणं' ऐसा कहा है उस 20 का यही मतलब है - विशेषग्राहि ज्ञान । द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक दोनों नयों का यह अपना अपना
ग्राह्य विषय है। अर्थ यानी विषय का, पर्याय यानी बोधक। दोनों ही नय इतरनयार्थसापेक्ष अपने अर्थ के ग्राहक हैं, यह फलितार्थ है।
* उपयोग - साकारानाकारभेद - प्रमाणस्वरूपनिरूपण * जैन शास्त्रों में अनेक स्थल में साकार एवं निराकार उपयोग का उल्लेख आता है। वहाँ अनाकारता 25 यानी सामान्य-ग्राहकता और साकारता यानी विशेष-ग्राहकता यही अर्थ अभिप्रेत है। जिस के ग्राह्य विषय
में आकार यानी भेद अर्थात् विशेष का कोई स्पर्श नहीं है उस उपयोग को अनाकार एवं दर्शन कहा गया है। अनेक आकार यानी भेद अर्थात विशेष जिस के ग्राह्यक्षेत्र में अन्तर्भुत हैं ऐसे साकार उपयोग को ज्ञान कहा गया है।
[ द्रव्य में रूप-रस-गन्धादि अनेक धर्म होते हैं। चाक्षुष ज्ञान रूप का ग्रहण करेगा किन्तु उस 30 द्रव्य में रहे हुए रस या गन्ध का अपलाप नहीं करेगा, तभी वह प्रमाणभूत माना जायेगा। अन्य
धर्मों का अपलाप करने पर वह अप्रमाणभूत कहा जायेगा - वैसे ही ] निराकार उपयोग प्रवर्त्तमान
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