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श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः श्रीमद् विजय प्रेम-भुवनभानु-जयघोषसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः
सन्मति-तर्कप्रकरणम्
तत्त्वबोधविधायिनी (टीका)
चतुर्थखण्डः
(द्वितीयः काण्डः)
(दर्शन-ज्ञानोपयोगस्वरूपम्) एवमर्थाभिधानरूपज्ञेयस्य सामान्य-विशेषरूपतया व्यात्मकत्वं प्रतिपाद्य 'ये वचनीयविकल्पाः संयुज्यमानयोरनयोर्नययोर्भवन्ति सा स्वसमयप्रज्ञापना, अन्यथा तु सा तीर्थकृदासादना' (काण्ड १-५३) इति यदुक्तम् तदेव प्रपञ्चयितुम्, 'उपयोगोऽपि परस्परसव्यपेक्षसामान्यविशेषग्रहणप्रवृत्तदर्शनज्ञानस्वल्पद्वयात्मकः 10 प्रमाणम् दर्शनज्ञानैकान्तरूपस्त्वप्रमाणम्' इति दर्शयितुं प्रकरणमारभमाणो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकाभिमतप्रत्येकदर्शन-ज्ञानस्वरूप-प्रतिपादिकां गाथामाहाचार्यः -
* एकान्तिक ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग अप्रमाण * सन्मतितर्कप्रकरण के प्रथम काण्ड में ज्ञेय-स्वरूप की मीमांसा की गयी। उस में कहा गया कि अर्थाभिधान (अर्थसंज्ञक) यानी ज्ञेयपदार्थ के दो ही मुख्य भेद हैं - सामान्य और विशेष। विशेषतः 15 प्रथम काण्ड की ५३ वीं गाथा में (तृतीय खंड में) यह ध्यान पर लाया गया कि सामान्य और विशेष के ही प्रतिपादन करने वाले द्रव्यार्थिक - पर्यायार्थिक दो नय हैं - उन के परस्पर सापेक्ष संकलन द्वारा अनेक विकल्प यानी प्रकार फलित होते हैं - इसी लिये इस ढंग से होने वाली प्ररूपणा अनेकान्तगर्भित होने से स्वसमय यानी जैन सिद्धान्तों की सही प्ररूपणा है। उस से विपरीत भाषण करना - यह तो तीर्थंकर भगवान की आशातना है। - इस संदर्भ में, द्वितीय काण्ड की प्रथमगाथा का अवतरण 20 करते हुए तत्त्वबोधविधायिनी व्याख्या के कर्ता श्री अभयदेवसूरिजी कहते हैं कि - यथार्थ प्ररूपणा में जैसे सामान्य और विशेषरूप ज्ञेय परस्पर सापेक्ष दिखाये गये हैं वैसे ही उन ज्ञेय का प्रकाशक चैतन्यमय
योग भी परस्पर सापेक्ष ज्ञान-दर्शन उभयरूप ही होता है। तात्पर्य, उपयोग की दो धाराएँ हैं - दर्शन एवं ज्ञान, दर्शनोपयोग विशेष-अविनिर्मुक्त सामान्य के ग्रहण में तत्पर रहता है और ज्ञानोपयोग सामान्य-अविनिर्मुक्त विशेष के ग्रहण में तत्पर रहता है - ऐसे ही दो उपयोग प्रमाण की कक्षा में 25 गिने जाते हैं। जब कि एकान्त सामान्य या एकान्त विशेष के ग्रहण में तत्पर दर्शन या ज्ञान उपयोग प्रमाणभूत नहीं है।
___ इस तथ्य का उपदर्शन कराने के लिये उपयोग प्रकरण के प्रारम्भ में मूलग्रन्थकार सिद्धसेनाचार्य द्रव्यार्थिकनय को सम्मत दर्शन एवं पर्यायार्थिकनय को सम्मत ज्ञान उपयोग के स्वरूप की सूचक, दूसरे ज्ञानकाण्ड की पहली गाथा प्रस्तुत करते हैं -
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