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खण्ड-४, गाथा-१
२७७ जनकत्वेन प्रेरणायास्तत्र व्यापारः - तन्तःकरणेऽप्येतत्तुल्यम् । ततोऽविद्यमानोपलम्भनस्य मानसाध्यक्षस्य सद्भावाद् न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिरिति न प्रथमा व्याख्या।
. द्वितीयव्याख्याने तत्सतोर्व्यत्ययेऽपि च न संशयज्ञानव्युदासः। तत्र ह्ययमों व्यवतिष्ठते- यद्विषयं विज्ञानं तेनैव सम्प्रयोगे इन्द्रियाणां प्रत्यक्षम् प्रत्यक्षाभासं त्वन्यसम्प्रयोगजमिति । तत्र संशयज्ञानं सम्यग्ज्ञानवत् यत्प्रतिभासि तेनैव संयोगे भवति। ननु उभयालम्बनत्वादुभयप्रतिभासि संशयज्ञानम् नचोभयात्मकेन्द्रिय- 5 सम्बन्धः तथापि तत्त्वत: सामान्यवान् पुरोऽवस्थितो धर्मी प्रतिभासमानान्यतरविशेषाश्रयः, अतो यत् प्रतिभाति तेन सहेन्द्रियस्य संयोगे संशयज्ञानमुदेति न चैतद्व्यवच्छेदाय किञ्चित् पदमुपात्तमिति नैतल्लक्षणात् संगत होगा ? यदि कहा जाय – 'प्रेरणा के द्वारा भावि कार्य की निर्बाध प्रतीति होती है, विना व्यापार वह नहीं हो सकती, इसलिये भावि कार्य के प्रति प्रेरणाकरण का व्यापार मानना पडेगा।' - तो हम भी कह सकते हैं, अन्तःकरण से त्रैकालिक अर्थ की निर्बाध प्रतीति होती है अतः अतीत- 10 अनागत अर्थ प्रति अन्तःकरण का व्यापार मानना ही पडेगा।
निष्कर्ष, अविद्यमान अर्थ का भी उपलम्भक मानस प्रत्यक्ष निर्बाध सिद्ध होता है। अतः प्रसङ्गसाधन में उपयुक्त ऐसी विद्यमानउपलम्भन के साथ प्रत्यक्षत्व की व्याप्ति की सिद्धि रुक जाती है। 'सारांश प्रथम व्याख्या अयुक्त है। [ सूत्रोक्तलक्षण की संशयादि में अतिव्याप्ति तदवस्थ ]
15 ___व्याख्याकार ने यैरपि.. (२६३-३) तथा यैस्तु... कर के पूर्व में (पृ.२६४-५०१) दो व्याख्या का निरूपण किया है, उन में प्रथम (? द्वितीय) व्याख्या की समालोचना कर के अब द्वितीय (?प्रथम) व्याख्या के निरसन में कहा है – सत् और तत् का व्यत्यय (?) कर के सूत्र की व्याख्या करने पर भी संशयज्ञान में अतिव्याप्ति का निवारण नहीं होता। द्वितीय व्याख्या में अर्थ का व्यवस्थापन ऐसा है कि - जो विज्ञान का विषय है उसी के साथ ही इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर प्रत्यक्ष 20 का उदय होगा, उसी के साथ नहीं किन्तु दूसरे किसी के साथ सम्प्रयोग होने पर प्रत्यक्षाभास उदित होगा। यहाँ त्रुटि स्पष्ट है, सम्यक् ज्ञान की तरह संशय में जो भासित होता है उस में से किसी एक के साथ संप्रयोग मौजूद होता है, फिर संशयज्ञान में प्रत्यक्ष लक्षण की अतिव्याप्ति क्यों नहीं होगी?
यदि कहा जाय कि - 'संशयज्ञान तो कोटिद्वयालम्बन होने से उभय कोटि का भासक होता है किन्तु वहाँ उभय कोटि के साथ इन्द्रियसम्बन्ध कहाँ रहता है ? (सिर्फ किसी एक कोटि के साथ 25 ही इन्द्रियसम्बन्ध वहाँ रहता है।)' तो सोचना होगा कि भले उभयकोटि के साथ इन्द्रिय सम्बन्ध न हो, फिर भी वास्तव में तो सन्मुख दिखनेवाला जो उच्चस्तरत्वादि सामान्य धर्म का आश्रयभूत धर्मी है उस के साथ तो इन्द्रियसम्बन्ध है ही, और वही धर्मी आखिर भासमान अन्यतर कोटि का आश्रय है जिस के साथ इन्द्रियसम्बन्ध भी है, इस प्रकार प्रत्यक्ष की तरह ही यहाँ भी जो धर्मी एवं अन्यतर धर्म भासित होता है उसी के साथ इन्द्रिय का संयोग होने पर संशय ज्ञान का जन्म 30 होता है। इस तरह अतिव्याप्ति लगने पर भी सूत्रकारने यहाँ उस के वारण के लिये 'संशयभिन्न' ऐसे किसी भी पद का उपादान नहीं किया। फलतः यहाँ प्रत्यक्ष के लक्षण की संशय में अतिव्याप्ति
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