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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
इत्येतान् पक्षान् व्युदस्याऽभिमतपक्षस्थापनं कृतम्- 'सति' सम्प्रयोगे। प्रयोगश्च द्विधा प्रदर्शित:- अर्थेष्विन्द्रियाणां व्यापारः योग्यता वा, न तु नैययिकाभ्युपगत एव संयोगादिः। स द्विविधोऽप्यतीतानागतादिलक्षणेऽर्थे अन्त:करणस्य चोदनाया इव कार्येऽर्थे न वार्यते। अथाऽविद्यमाने कथं करणव्यापारः ? करणत्वे
नाभ्युपगतायाश्चोदनाया अपि कथं कार्येऽर्थे ? ततो नान्तःकरणस्य विशेषः तत्प्रमेयस्य त्रिकालावच्छिन्नत्वात् 5 भाविरूपस्यापि तद्रूपत्वेन वा सतो वर्तमानत्वापत्तिः। तथा चोक्तं व्यासेन ( ) -
अवश्यं भाविनं नाशं विद्धि सम्प्रत्युपस्थितम्। अयमेव हि ते काल: पूर्वमासीदनागतः।।
यत् पुनः कार्यं कालत्रयपरामृष्टं शशशृंगप्रख्यं तत्र कथं प्रेरणाख्यकरणव्यापारः ? अथाऽबाधितप्रतीतिका प्रयोजक माना है, तो इस से भी मनोजन्य प्रातिभ ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का समर्थन होता है। कैसे
यह देखिये - प्रत्यक्षसूत्र के व्याख्याकार ने 'सम्सम्प्रयोगे' इस पद के समास का विग्रह पहले चार 10 विकल्प से दिखा कर उन का (यानी विद्यमानोपलम्भ का भी) निषेध किया है। (१) सता सम्प्रयोगः ... (= सत् यानी विद्यमान के साथ संयोग) । (२) सीदता संप्रयोगः (= सीदाते हुए अर्थ के साथ संयोग।)
(३) साधुना सम्प्रयोगः (= साधु के साथ संयोग) (४) 'सद्भिः सम्प्रयोगः (= सज्जनों के साथ संयोग)। प्रस्तुत में इस में से एक भी विग्रह सार्थक न होने से व्याख्याकार ने उस का निषेध किया है। फिर वहाँ (५) 'सति सम्प्रयोगे (= संप्रयोग के रहते) ऐसा विग्रह कर के अर्थ विवेचन किया है। 15 सम्प्रयोग की व्याख्या दो प्रकार से वहाँ की गयी है। 'अर्थों के प्रति इन्द्रियों का व्यापार, और अर्थों
के प्रति इन्द्रियों की योग्यता। नैयायिकोंने जो इन्द्रियों के संयोग-समवाय को दर्शाया है, वह मीमांसकने नहीं दर्शाया।
[ अनागत अर्थ भी प्रेरणा का विषय होता है ] मीमांसक को समझना चाहिये कि जैसे विधिवाक्यकृत प्रेरणा के काल में कार्य (यज्ञादि या स्वर्गादि) 20 विद्यमान न होने पर भी विधिवाक्य सूचित प्रेरणा का वह विषय बनता है, तो ऐसे ही यहाँ अन्तःकरण
रूप इन्द्रिय का व्यापार अथवा योग्यता भी अतीत-अनागत स्वरूप अर्थ के ग्रहण में सक्रिय हो सकते ___ हैं। यदि पूछा जाय - अविद्यमान अतीतादि अर्थ के प्रति करण का व्यापार कैसे सम्भव होगा ?
तो हम भी मीमांसक को पूछ सकते हैं - करणभूत प्रेरणा का भी भावि कार्यार्थ के प्रति व्यापार
कैसे होगा ? प्रेरणारूप करण का अन्तःकरण में, करणत्वरूप से कोई भेद नहीं है। प्रेरणा की तरह 25 अन्तःकरण ग्राह्य प्रमेयरूप विषय भी त्रैकालिक होने में कोई बाध नहीं है। ग्राह्य प्रमेय के त्रैकालिकरूप
होने के प्रभाव से ही जो कभी भाविरूप होता है वही कुछ काल के बाद वर्तमानरूपता को भी प्राप्त करता है। (अत एव) अन्तःकरण से गृहीत होनेवाला भावि अर्थ भी कथंचित् वर्तमानरूप से वर्तमान में गृहीत होने में बाध नहीं है। व्यास ऋषि ने भी ऐसा कहा है – “(भूतकाल में) जो
निश्चितरूप से भावि नाश था वही अब वर्तमान में उपस्थित हो गया है। पहले जो तेरे लिये अनागतस्वरूप 30 काल था वही अब यह (वर्तमानरूप में उपस्थित) काल है।"
____मीमांसक जिस भावि कार्य को त्रैकालिकस्वरूप नहीं मानता, उस को कहना पडेगा कि जो त्रैकालिक नहीं है वह खरगोशसींग की तरह असत् होता है – उस के प्रति प्रेरणारूप करण का व्यापार कैसे
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