________________
खण्ड-४, गाथा-१
२७५ ___ एवं मानसस्याप्रत्यक्षस्याऽविद्यमानोपलम्भकस्य सद्भावाद् न प्रसङ्गसाधने व्याप्तिसिद्धिः। तथा सर्वस्यैव स्थपत्यादेः क्रियमाणवस्तुग्रहणं प्रत्यक्षं सिद्धमेव। किञ्च, कथं जैमिनीयाः स्थिरग्रहणवादिनो वर्तमानविषयमेव प्रत्यक्षं संचक्षते ? स्थिरग्रहणं हि वस्तुनः एवं भवति यदि वर्तमानविशिष्टस्यैवातीतानगतकालविशिष्टग्रहणम् अन्यथा स्थिरग्रहणाभावः। तथा चोक्तम्- 'रजतं गृह्यमाणं हि चिरस्थायीति गृह्यते"( )। ततः परस्परव्याहतार्थाभिधानात् यत्किञ्चिदेतत्। तदेवं न प्रत्यक्षस्यातीन्द्रियार्थग्रहणनिषेधः पूर्वोक्तनीत्या, 5 सम्भाव्यते चातीन्द्रियार्थग्रहणमध्यक्षस्य । यथा तत् सम्भवति तथा सर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते।
किञ्च, सत्संयोगजत्वाद् यदि विद्यमानोपलम्भनत्वमुच्यते तत्र ‘सता सीदता साधुना सद्भिर्वा' द्वारा मन रूप अक्ष से मानस प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष ज्ञान, अतीत तत्ताविषयक होता है, बाह्यइन्द्रियव्यापार के विना भी होता है, ठीक इसी क्रम से प्रातिभ प्रत्यक्ष होने में भी कोई अडचण नहीं है। ___ यदि कहा जाय - ‘मन अपने स्वातन्त्र्य से बाह्यार्थ का प्रातिभ प्रत्यक्ष यदि कर पायेगा तो 10 नेत्रविहीन व्यक्ति भी अन्ध नहीं रहेगी, विना नेत्र भी वह बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष कर लेगा, फिर विश्व में अन्धत्व का श्राप ही नहीं रहेगा।' - तो इस का निरसन तो मानस प्रत्यक्ष के प्रकरण में पहले ही किया जा चुका है।
उक्त प्रकार से यह फलित होता है कि प्रातिभ प्रत्यक्ष अविद्यमान वस्तु का भी उपलम्भक है, अत एव मीमांसकों ने विपर्यय सिद्ध करने के लिये जो प्रसङ्गसाधन कहा था - जो प्रत्यक्ष होता 15 है वह सत्सम्प्रयोगजन्य होता है - इस में सत्सम्प्रयोग के साथ प्रत्यक्षत्व की व्याप्ति ही सिद्ध न होने से वह प्रसङ्गसाधन विपर्ययसिद्धि के लिये निरर्थक ठहरता है। यह तथ्य भी सुविदित है कि भवननिर्माता सूत्रधार आदि सभी को भवननिर्माण जब चालु होता है तब भवन वहाँ भावि है, विद्यमान नहीं, फिर भी उस के निर्माण के पहले ही स्थपति आदि को मन में तो वह प्रत्यक्ष ही रहता है, अन्यथा वह भवन का निर्माण ही नहीं कर सकता।
20 दूसरी बात यह है - मीमांसकपंथी तो स्थिर वस्तु का ग्रहण स्वीकारते हैं। स्थिर वस्तु में तो अतीत-वर्तमान-अनागत तीनों काल संकलित रहते हैं। यदि प्रत्यक्ष को सिर्फ वर्त्तमानग्राही ही म तीन काल स्पर्शी स्थिर वस्तु का प्रत्यक्षग्रहण कैसे होगा ? स्थिर वस्तु का ग्रहण तब हो सकता है यदि वर्तमानकालीन अर्थ का ही अतीतानागतकालगर्भितरूप से ग्रहण किया जाय। ऐसा नहीं मानने पर स्थिर वस्तु का प्रत्यक्षग्रहण सम्भव ही नहीं। मीमांसकों ने ही अपने ग्रन्थों में क्षणिकवाद के परिहार 25 में कहा है – 'जब रजत का ग्रहण होता है तब चिरस्थायिरूप से ही वह गृहीत होता है।' एक ओर स्थिरवस्तु के प्रत्यक्ष ग्रहण का स्वीकार, दूसरी ओर प्रत्यक्ष को सिर्फ वर्तमानग्राही मानना - यह तो परस्पर विरोधग्रस्त है अत एव निरर्थक है। निष्कर्ष, मीमांसक के पूर्वोक्त कथनानुसार प्रत्यक्ष के द्वारा अतीन्द्रिय अर्थ के ग्रहण का जो निषेध किया गया है वह उक्त युक्तियों से गलत सिद्ध होता है। नैयायिक कहते हैं कि प्रत्यक्ष से अतीन्द्रिय अर्थ का ग्रहण सम्भवित है। किस तरह सम्भवित है उस की बात 30 प्रथम खंड में (पृ.५३-६९) सर्वज्ञसिद्धि प्रस्ताव में हो चुकी है, यहाँ उस की पुनरुक्ति नहीं करेंगे।
[ सत्सम्प्रयोग. सूत्र का विद्यमानोपलम्भन अर्थ असंगत ] यह भी सोचिये :- जब मीमांसकों ने प्रत्यक्षलक्षण में सत्संयोगजन्यत्व को ही विद्यमानोपलब्धि
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org