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________________ २७४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्तन्निमित्तत्वेन तत्र तत्र प्रतिपादनात् । नाप्यस्याः लिङ्ग-शब्दप्रभवत्वम् तदभावेऽपि भावात्। उपमानजत्वाशङ्का दूरोत्सारिता। अतः प्रत्यक्ष प्रतिभा। यद्येवम्, तदुत्पत्तावक्षं वक्तव्यम् । किमत्रोच्यते- मनसः सन्निहितत्वात् तस्य विशिष्टार्थग्रहणे विशेषणविशेष्यभावः सन्निकर्षः नियामकत्वेन पूर्वं प्रदर्शितः । यथा प्रत्यभिज्ञानोत्पत्तौ स्मर्यमाणप्रतीयमानानुभवविशेषणं वस्तु तस्या विषयः, न चैतावति बाह्येन्द्रियव्यापार इति मानसं प्रत्यभिज्ञानम्, तद्वत् प्रातिभमपि ।अन्धाधभावो बाह्याभ्युपगमे मनसः स्वातन्त्र्येण पूर्वं निराकृतः। के उद्भव को हम मान्य नहीं करते हैं, क्योंकि पुण्य हो या पाप, वह सुख/दुःख के बाह्य साधन शरीरादि की उत्पत्ति के द्वारा ही सुख-दुःख के कारण बनते हैं, न कि साक्षात् । यदि प्रतिभा की पुण्यविशेष से उत्पत्ति मानेंगे तो पुण्य साक्षात् प्रतिभाजनक न होने से, स्वजन्य कुछ इन्द्रियार्थसंनिकर्षादि 10 साधन के उत्पादन द्वारा ही प्रतिभाजनक बन सकेगा, तब तो प्रतिभा को इन्द्रियादिजन्य मानना पडेगा। इसी लिये तो नेत्रांजनादि से चक्षु द्वारा (दूसरे के लिये अदृश्य) किसी सिद्धपुरुष के दर्शन को भी हम 'प्रतिभा' नहीं कहते, क्योंकि वह तो किसी गुरु के प्रसादादि द्वारा, रथ्यापुरुष = अति सामान्य पुरुष को भी अपनी चक्षु के द्वारा हो सकता है। [ प्रतिभा को अप्रमाण नहीं मान सकते ] 15 ऐसा जो कुछ लोग कहते हैं कि - ‘प्रतिभा प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि उन के जनक निमित्त (भ्रमजनक दोषों की तरह) अनियत होते हैं।' तो उस का प्रतिकार नैयायिकोंने किया ही है - स्थान स्थान पर कहा हुआ है कि प्रतिभा का मुख्य एवं नियत निमित्त मन ही है। लिङ्ग या शब्द से प्रतिभा का जन्म नहीं माना जा सकता क्योंकि लिङ्ग या शब्द उभय के विरह में भी प्रतिभा का उद्गम देखा जाता है। प्रतिभा उपमानजन्य होने की शंका उठाना तो बहुत दूर की बात है, मतलब, 20 शक्य ही नहीं है। [प्रातिभ प्रत्यक्ष के लिये विशेषण विशेष्यभाव संनिकर्ष ] मीमांसक :- प्रतिभा को प्रत्यक्ष मानेंगे तो उस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति कौन से अक्ष से (= इन्द्रिय से) होती है यह बोलो ! (अक्ष को व्याप्त रहनेवाला ही प्रत्यक्ष कहा जाता है।) नैयायिक :- उस में क्या पूछने का है ? मन यानी अन्तःकरण ही यहाँ ‘अक्ष' है। वह सदा 25 आत्मा से सन्निहित रहता है, आत्मा में किसी धर्मी की स्मृति होती है, उस के साथ दूरदेशस्थ दूरकालवर्ती उस धर्मी के धर्म का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, इस प्रकार मनःसंयुक्तआत्मनिष्ठस्मृति के विशेष्यभूत धर्मी के साथ उस के विशेषणभूत धर्म का प्रत्यक्ष होता है, यहाँ स्पष्टरूप से विशेष्य-विशेषणभावरूप संनिकर्ष के द्वारा उपरोक्त क्रम से मन अतीन्द्रिय अर्थ का प्रत्यक्ष कर सकता है, इस मे अदृष्टविशेष भी सहकारी हो सकता है। उदाहरण के रूप में प्रत्यभिज्ञा को याद करो :- यहाँ मनः संयुक्तआत्मनिष्ठस्मृति 30 के विषय का (यानी तत्ता का) विशेषणरूप में एवं पुरोवर्ती अर्थ का विशेष्य के रूप में जब भान होता है तब मुख्यरूप से वह विशेषण रूप वस्तु तत्ता ही वहाँ प्रत्यभिज्ञा का विषय बन जाता है। यहाँ तत्ता अतीत होने से विद्यमान नहीं है फिर भी यहाँ विशेषण-विशेष्यभावरूप संनिकर्ष के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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