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खण्ड-४, गाथा- १
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विशेषणाऽग्रहणे कथं विशेष्यबुद्धि: ? अपि च, श्वस्तनागमनविशिष्टभ्रातृज्ञानं प्रतिभा, न देशादिज्ञानम् न चेन्द्रियस्य तेन कश्चित् सम्बन्धः ।
अत एव आर्षमपि ज्ञानं न प्रतिभा । यतः 'ऋषीणामपि यद् ज्ञानं तदप्यागमपूर्कम् ' ( वाक्य ०प्र० का ० श्लो. ३०) अनेनोपायजत्वमार्षस्य दर्शयति । उपायश्च सन्निकर्ष-लिङ्ग शब्दस्वभावः आगमग्रहणस्य प्रदर्शनार्थत्वात् । नापि धर्मविशेषात् सन्निकर्षं विनाऽपि प्रतिभायाः समुद्भवः यतो धर्माधर्मयोः फलजनकत्वं साधनजनकत्वेनैव 5 यथा सुखादी जन्ये शरीरादेर्जननम् । एवं प्रतिभाया अपि धर्मविशेषजन्यत्वे केनचिदिन्द्रियार्थसंनिकर्षादिना साधनेन धर्मविशेषजनितेन भाव्यम् । अत एव सिद्धदर्शनमपि न प्रतिभा रथ्यापुरुषस्यापि भावात् । ‘अनियतनिमित्तप्रभवत्वेनाऽप्रमाणं प्रतिभा' इति यत् कैश्चिदभ्यधायि तन्नैयायिकैर्निराक्रियत एव, मनसनैयायिक :- ( इस का समाधान नैयायिकों ने पहले श्लोकवार्त्तिक के उद्धरणों का निराकरण करते हुए कर ही दिया है कि मनोजन्यविज्ञान में विना संनिकर्ष भी प्रत्यक्षत्व होने में कोई बाध नहीं 10 है । अन्य विद्वान् यहाँ क्या समाधान करते हैं और वह क्यों अनुचित है वह अब पढिये – ) यहाँ कोई समाधान करते है यहाँ जो प्रातिभ ज्ञान होता है वह देशगर्भित होता है " मेरा भाई इस स्थान में कल आनेवाला है ।” यहाँ यद्यपि अग्रिमदिनागमनविशिष्ट भ्रातृ के साथ अव्यवहित संनिकर्ष भले न हो किन्तु संयुक्तविशेषणतारूप परम्परा संनिकर्ष मौजूद ही है, क्योंकि 'इस स्थान' रूप देश के साथ चक्षुइन्द्रिय का संयोग संनिकर्ष मौजूद है और उस देश में अग्रिमदिन आगमनयुक्त भाई विशेषणरूप 15 से भासित होता है। यह समाधान दूसरे विद्वान् मान्य नहीं करते, क्योंकि 'इस स्थान' रूप देश एवं भ्राता दोनों ही विशेष्य- विशेषण एक ही चक्षुइन्द्रिय के विषयरूप में यहाँ प्रदर्शित करते हैं । किन्तु यह तभी सच माना जाय जब कि अनागत भ्राता भी चक्षु से संनिकृष्ट हो। वह तो सम्भव ही नहीं है, घटादिविशेषण चक्षुसंनिकृष्ट न होने पर भूतलादि विशेष्य में घटादिवत्ता की बुद्धि हो नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि प्रस्तुत प्रतिभा में सिर्फ अग्रिमदिनागमनदिविशिष्ट भ्राता ही भासित 20 होता है न कि कोई देश । अतः न तो यहाँ देशादि विशेष्य ज्ञान होता है। न तो उस के साथ चक्षुः इन्द्रिय का कोई सम्बन्ध है । (अन्धे को भी प्रतिभा से “मेरा भाई कल आ रहा है” ऐसा ज्ञान होता है वहाँ न तो देश के साथ चक्षुःसंनिकर्ष है, न तो देशादि का चाक्षुष ज्ञान है । )
[ प्रतिभा प्रत्यक्षेतर ज्ञानस्वरूप नहीं है ]
प्रतिभा एक स्वतन्त्र प्रमाण है जिस को किसी भी आगमादि की अपेक्षा नहीं होती, इसीलिये 25 वाक्यपदीयग्रन्थ कर्त्ताने भी लिखा है कि ऋषियों का जो 'आर्ष' ज्ञान है वह भी प्रतिभा नहीं है क्योंकि ‘ऋषियों को होनेवाला ज्ञान भी आगमप्रयुक्त होता है ।' तात्पर्य यह है- प्रशस्तपाद भाष्यकार आर्षज्ञान को प्रातिभ मानते हैं । किन्तु नैयायिक कहते हैं कि आर्ष ज्ञान भी प्रातिभ नहीं है किन्तु बाह्य उपाय से उत्पन्न होनेवाला होता है । वह उपाय या तो संनिकर्ष हो, या लिङ्ग अथवा शब्दरूप हो सकता है । वाक्यपदीय में जो ऋषिज्ञान को आगमजन्य कहा है वहाँ आगमपद अन्य भी लिङ्ग 30 और संनिकर्ष को प्रदर्शित करनेवाला ( उपलक्षण से ) समझ लेना, जिस से संनिकर्षादि तीन उपाय के कथन के साथ विरोध नहीं होगा । विना संनिकर्ष सिर्फ पुण्यप्रभावरूप धर्मविशेष से ही प्रतिभा
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