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________________ २७८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तव्युदासः इति न जैमिनीयमपि प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यम् । चार्वाकैस्तु प्रत्यक्षमपि न तत्त्वतः प्रमाणमभ्युपगम्यते इति न तद्विचारणप्रयास: सफल इत्यक्षपादविरचितमेव प्रत्यक्षलक्षणमनवद्यमिति नैयायिकाः। [ अक्षपादरचितप्रत्यक्षलक्षणमपि मिथ्या- जैनमतम् ] असदेतत् - तदभ्युपगमेनेन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नत्वादेरघटमानत्वात् । (चक्षुरिन्द्रियप्राप्यकारित्वमतनिरसनम्) तथाहि- इन्द्रियं यदि चक्षुर्गोलकादिकमवयविरूपमभ्युपगम्यते तदा तस्य स्वविषयेण व्यवहितदेशेन पर्वतादिना सन्निकर्षोऽसिद्धः। न ह्यत्यन्तव्यवहितयोहिमवद्-विन्ध्ययोरिव चक्षुर्गोलक-तदर्थयोः संनिकर्षः संयोगादिलक्षण: सिद्धः । न चावयविलक्षणं गोलकादि वस्तु सिद्धम् तद्ग्राहकाभिमतप्रमाणस्य निषिद्धत्वात् । 10 न च तदाधारः संयोगादिका सम्बन्धः समस्ति पराभ्युपगतस्य तस्य निषिद्धत्वात् निषेत्स्यमानत्वाच्च । योऽपि कथंचित् पदार्थव्यतिरिक्तः संश्लेषणलक्षणः काष्ठ-जतुनोरिव सम्बन्धः प्रसिद्धः सोऽपि व्यवहितेन के दोष का निरसन न हो पाने से जैमिनी सूत्रकार (मीमांसक) का रचा हुआ प्रत्यक्ष का लक्षण निष्कलंक नहीं है। [ नास्तिक चार्वाक कथित प्रत्यक्ष की व्याख्या तथ्यहीन ] 15 नास्तिक चार्वाकपंथीयों ने प्रत्यक्ष का स्वीकार करते हुए भी 'वास्तव में वे प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हो' इस में कुछ तथ्य नहीं है सिर्फ नाममात्र से मानते होंगे। कारण, प्रत्यक्ष के प्रामाण्य की सिद्धि करने के लिये उन्हें अनुमानादि के प्रामाण्य का अंगीकार बरबस करना ही पडेगा। अनुमानप्रमाण के विना प्रत्यक्ष के प्रामाण्य की सिद्धि कैसे होगी ? प्रत्यक्ष के प्रामाण्य का प्रत्यक्ष तो नहीं होता। अतः चार्वाकरचित प्रत्यक्षलक्षण की चर्चा का प्रयत्न निरर्थक ही है। निष्कर्ष यह हुआ कि अक्षपादविरचित 20 प्रत्यक्षलक्षण ही निर्दोष है। ऐसा नैयायिक कहते हैं। [ नैयायिक अभिमत प्रत्यक्षलक्षण का प्रतिकार - जैन ] नैयायिकों का अंतिम कथन अनुचित है। कारण, यदि उस के कथनानुसार अक्षपादरचित प्रत्यक्ष लक्षण को निर्दोष कहा जाय तो इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्व भी मानना पडेगा किन्तु उसका मेल नहीं खाता । ___ (चक्षुरिन्द्रियतथ्यता की परीक्षा) 25 देखिये :- (चक्षु इन्द्रिय गोलकरूप हो या रश्मिरूप, दोनों पक्ष में इन्द्रियार्थसंनिकर्ष मेल नहीं खाता। प्रथम पक्ष में) यदि चक्षुरिन्द्रिय को आप (नैयायिक) गोलकस्वरूप अवयवीरूप मानते हैं तो स्पष्ट ही है कि दूरदेश में रहे हुए अपने विषयभूत पर्वतादि के साथ उस का संनिकर्ष शक्य नहीं है। अत्यन्त दूर रहे हुए हिमाचल एवं विन्ध्याचल का जैसे संयोगादिरूप सम्बन्ध शक्य नहीं, वैसे ही चक्षुगोलक तथा उस के विषयभूत अर्थ के साथ संयोगादि सम्बन्ध प्रमाणसिद्ध ही नहीं है। दूसरी 30 बात यह है अवयविस्वरूप कोई भी गोलकादि पदार्थ भी सिद्ध नहीं है, क्योंकि उस (अवयवी) के साधकरूप से प्रदर्शित प्रमाण का पूर्व ग्रन्थ में ( ) निषेध किया जा चुका है। उपरांत, अवयवी का आधारभूत अथवा अवयविमूलक कोई (नैयायिक प्रदर्शित तरीके के अनुरूप द्रव्य से सर्वथा भिन्न) न्यायदर्शन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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