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अथ गृध्र-वृषदंशचक्षुषोरेतत्स्वभावत्वेऽपि रूपग्रहणप्रतिनियमः । न हि ते रसादी कदाचित् प्रवर्त्तन्ते, तथा योगिप्रत्यक्षस्यापि स्वविषय एवाऽतिशयो भविष्यति । तदुक्तम्- " यत्राप्यतिशयो दृष्टः '... इत्यादि । 5 तथा *" येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । ' इत्यादि च ।
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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
वा भिन्नस्वभावं दृष्टं तद्वत् योगिप्रत्यक्षं भविष्यति । एवं प्रतिवादिप्रत्यक्षेऽपि साध्यसाधनयोर्व्याप्तिनिषेधो दृष्टव्यः ।
एवमेतत्, किन्तु द्विविधं प्रत्यक्षम् बाह्येन्द्रियजम् मानसं च । तत्र पूर्वस्यातीतादिग्राहकत्वनिषेधे रसादिग्राहकाणामिव इतरेतरविषयाऽग्रहणे सिद्धसाध्यता । मानसस्य तु अतीतादिरपि विषयः, तस्य सर्वका प्रतिपादन हो । ( हालाँकि मीमांसक विद्वान् अर्थवाद यानी अन्यप्रमाणसिद्ध वस्तु के स्वरूपार्थ का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ को प्रमाण नहीं मानते सिर्फ अन्यप्रमाण असूचित यज्ञादि अर्थ प्रतिपादक 10 वेदादि को ही प्रमाण मानते हैं, किन्तु विश्वस्त ऋषि रचित ग्रन्थ स्वरूपार्थप्रकाशक हो भी उसे प्रमाण मानना अनिवार्यरूप से आवश्यक है यह नैयायिककथन का तात्पर्य है ।) फलितार्थ यह है कि जैसे मार्जार का नेत्र और अपने नेत्र में नेत्रत्व अथवा नेत्रशब्दवाच्यत्व समान होने पर भी मार्जार के नेत्र का रात्रिदर्शनादि अलग ही स्वभाव सर्वविदित है, इसी तरह योगिप्रत्यक्ष भी हमारे प्रत्यक्ष से भिन्न स्वभाववाला यानी अतीन्द्रिय अर्थ का ग्राहक हो सकता है। अत एव मीमांसक के द्वारा 15 प्रदर्शित प्रसङ्ग - विपर्यय में जो साध्य-साधन का निर्देश है उन में व्याप्ति की सिद्धि अशक्य है क्योंकि प्रतिवादी सूचित (योगी) प्रत्यक्ष में वह संगत नहीं होती । ( व्याप्ति यह कि जो एक व्यक्ति से गृहीत नहीं होता वह अन्य किसी से भी गृहीत नहीं होता मार्जारादि एवं सम्पात्यादि प्रत्यक्ष में इस
की निष्फलता सिद्ध है ।)
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[ गीध - मार्जारादि का सातिशय प्रत्यक्ष भी मर्यादित ]
मीमांसक : गीध एवं मार्जार चक्षु का स्वभाव मानवीय चक्षु से कुछ अलग होता है, फिर भी वह अपने रूपग्रहण की मर्यादा का उल्लंघन कर के रसादि का अथवा अतीन्द्रिय अर्थ का ग्रहण नहीं कर सकता। इसी तरह हो सकता है कि भिन्नस्वभाववाले योगिप्रत्यक्ष से अपने विषयभूत रूपादि का अधिक स्पष्ट दर्शन होता हो, किन्तु प्रत्यक्ष की मर्यादा (विद्यमानग्राहित्व ) का उल्लंघन कर के वह अतीतादि का ग्रहण करने लगे ऐसा तो नहीं हो सकता । कुमारिल भट्टने श्लोकवार्त्तिक 'जहाँ भी अतिशय दिखता है वह अपने विषय तक मर्यादित
25 (सू० १-१-४ का० ११४) में कहा है ही होता है” तथा 'जिन मनुष्यों की प्रज्ञा और मेधा आदि में सातिशयता दिखती है वह भी अपने विषय की सीमा तक ही होती है । " ( ऐसा नहीं होता कि कोई प्रज्ञावंत मेधावी पुरुष अपनी तीव्र मेधा - प्रज्ञा से सारी दुनिया को जान ले ।)
[ मानस प्रत्यक्ष की विशेषता के प्रदर्शन द्वारा नैयायिक का समाधान ]
नैयायिक :- अतिशय को सीमा होती है यह आप की बात मानते हैं । किन्तु विशेष ज्ञातव्य यह है कि प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं - १ बाह्येन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, २दूसरा मनोजन्य मानस प्रत्यक्ष प्रथम A. भाग-१, पृ.२०२ पं. ५, तथा तत्त्वसंग्रहे का० ३३८७ । भा. १ पृ.२०२-३ तथा तत्त्वसंग्रहे का. ३१६० ।
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