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खण्ड-४, गाथा-१
२६९ विषयत्वात् । तथाहि- वादि-प्रतिवादिनोर्मानसं स्पष्टाभं स्मार्तमतीतार्थग्राहि विज्ञानं सिद्धम् एवमनागतार्थाध्यवसायि मानसं वादि-प्रतिवादिनोस्तथाविधं द्रष्टव्यम् । तस्य चाभूतार्थस्यापि स्पष्टाभता भावनाप्रकर्षात् काम-शोकभयादिज्ञाने प्रतिपादिता। यत् पुनर्भूतार्थं प्रमाणद्वयपूर्वकं भावनाप्रकर्षसमुद्भूतं तत् संवादात् प्रमाणम् विशदत्वाच्च प्रत्यक्षम् । सम्भाव्यते च तथाविधं प्रत्यक्षं योगिनाम् यथाऽस्मदादीनां प्रातिभम् ‘श्वो मे भ्राता आगन्ता' इत्यनागतार्थग्राहकम्। न च सन्दिग्धस्वभावताऽस्य, निश्चितत्वेनोत्पादाद् । बाधकाभावात् न 5 विपर्यस्तताऽपि। ___अथ सर्वा प्रतिभा न सत्यार्था सिद्धेति न प्रमाणं प्रातिभम् तीन्द्रियजमपि सर्वं न सत्यार्थं सिद्धमिति तदप्यप्रमाणं भवेत् । अथ मा भूत् प्रमाणं यद् बाध्यते, इतरं(? त्) तु प्रमाणम् – प्रातिभेऽपि समानमेतत् । प्रकार में आप अतीतानागतग्रहण का निषेध करो अथवा रूप-रसादिग्राहक चक्षु-रसनादि इन्द्रियों में अन्योन्य रस-रूपादि ग्राहकता का निषेध करो तो वह तो हमें भी मान्य हे - मतलब सिद्धसाध्यता ही है। 10 दूसरे मानसप्रत्यक्ष के साथ आप की मर्यादा की बात संगत नहीं है। कारण, मन तो सर्वग्राही है कोई भी विषय उस से अछूता नहीं है, अतीतानागत को भी वह जान लेता है यह तो अनुभवसिद्ध है। कैसे - यह सुनिये,
मानस विज्ञान स्मृतिगर्भित अत्यन्त स्पष्ट अतीतार्थग्राहि प्रत्यक्षरूप होता है यह तो हम-आप को सभी को अनुभवसिद्ध है। (पूर्वकालीन स्मृतिजनक संस्कारों की प्रबलता से पूर्वदृष्ट दृश्यों का वर्तमान 15 में तादृश चीतार नजर समक्ष खडा हो जाता है - यह सर्वजनविदित है।) वैसा ही, हम-आप को भी कभी कभी स्पष्टरूप से भाविघटनाओं का स्पष्टरूप से दर्शन होता है - यह भी अनुभवसिद्ध है। हालाँकि अनागत अर्थ वर्तमान में अविद्यमान है फिर भी योगाभ्यास अथवा अदृष्टविशेष आदि कारणों से उस का स्पष्टरूप से (clairvoyance) दर्शन किसी किसी को हो जाता है। उस का प्रधान कारण है तीव्र भावना, तीव्र उत्कंठा अथवा तीव्र आवेग। तीव्र आवेग से कामज्वरपीडित कामान्ध 20 आदमी को स्तम्भादि की जगह अपने प्रेमपात्र का स्पष्टरूप से प्रत्यक्ष दर्शन होता है उस का इनकार कौन कर सकता है ? तीव्र शोकदशा, प्रबल भयदशा में भी ऐसा होता है। वर्तमान में विद्यमान सद्भूतार्थ का भी (दूरस्थ होने से इन्द्रियसंनिकर्ष के विना) पूर्वजात प्रत्यक्ष-अनुमानप्रमाणद्वयपूर्वक नया प्रत्यक्ष ज्ञान तीव्रभावना के प्रभाव से हो जाता है। फिर वहाँ दूर जा कर के देखे तो उस की उपलब्धि होती है अतः इस संवाद से उस के प्रामाण्य में संदेह भी नहीं रहता। वह अत्यन्त स्पष्ट 25 होने से प्रत्यक्ष ही माना गया है। योगिजन को ऐसा दूरस्थ पदार्थ का प्रत्यक्ष होना असम्भवित नहीं है, अरे हम लोगों को भी कभी कभी – 'मेरा भाई कल आ रहा है' ऐसा अनागत-दूरवर्ती भाई के बारे में प्रतिभाजन्य प्रातिभ प्रत्यक्ष होता है। वह भी निश्चितरूप से ही अनुभवारूढ होता है न कि संदेहरूप में। वह विपर्यस्तरूप भी नहीं होता क्योंकि वहाँ किसी बाध की उपस्थिति नहीं होती।
[प्रातिभज्ञान के प्रामाण्य पर आक्षेप-प्रतिकार ] मीमांसक :- प्रातिभ ज्ञान तो प्रमाणभूत ही नहीं है, क्योंकि यह सिद्ध नहीं है कि अखिल प्रतिभा सत्यार्थस्पर्शी ही हो। कभी कभी प्रतिभा से गलत ज्ञान भी होता ही है।
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