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खण्ड-४, गाथा-१
२६३ [ नैयायिककृतं मीमांसासूत्रोक्तप्रत्यक्षलक्षणनिरसनम् ] जैमिनिपरिकल्पितमपि प्रत्यक्षलक्षणम् ‘सत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम्' (मीमांसाद० १-१-४) इति संशयादिषु समानत्वात् वार्तिककारप्रभृतिभिर्निरस्तमेव। यैरपि
‘सम्यगर्थे च संशब्दो दुष्प्रयोगनिवारणः' (श्लो. वा.सूत्र ४ प्रत्यक्ष श्लो.३८) इत्यादिना तल्लक्षणं व्याख्यातम्- तेषामपि प्रयोगस्यातीन्द्रियत्वात् सम्यक्त्वं न विशिष्टफलमन्तरेण ज्ञातुं शक्यम् फलविशेषणत्वेन 5 च न किञ्चित् पदं श्रूयत इति न कार्यद्वारेणापि तत्सम्यक्त्वावगतिः। बुद्धिजन्मनः प्रमाणत्वं तु न
[ ईश्वरकृष्णप्रदर्शित प्रत्यक्षलक्षण की परीक्षा ] ईश्वरकृष्ण विद्वान ने अपने सांख्यकारिका ग्रन्थ में प्रत्यक्ष का जो लक्षण कहा है 'प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्' (दृष्टम् यानी प्रत्यक्षम्) उसी का दूसरे ढंग से उल्लेख करते हुए यहाँ टीकाकार कहते हैं - श्रोत्रादि से जायमान प्रतिनियत (यानी तद् तद् विषय का) अध्यवसाय तो प्रत्यक्षप्रमाण का फल है, 10 वह स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाणरूप नहीं है क्योंकि वह फल के प्रति (यानी अपने प्रति) साधकतम नहीं है। यदि कहा जाय कि यह अध्यवसाय फल रूप नहीं है किन्तु विशिष्ट (प्रमात्मक) उपलब्धि का निवर्त्तक यानी निष्पादक है यानी विशिष्टोपलब्धि के प्रति साधकतम होने से वह प्रत्यक्ष प्रमाण है - तो हमारे नैयायिक के मत का आशरा ही लेना पडेगा। निष्कर्ष :- सांख्यमत के आधार से प्रतिपादित प्रत्यक्ष का लक्षण भी युक्तियुक्त नहीं है।
[ मीमांसकसूत्रप्रदर्शित प्रत्यक्षलक्षण का निरसन - नैयायिक ] नैयायिकों ने मीमांसदर्शनसूत्र के प्रणेता जैमिनि ऋषि ने जो प्रत्यक्षलक्षण कहा है उस का भी निरसन निम्नोक्तप्रकार से किया है।
मीमांसासूत्रोक्त लक्षण का अर्थ यह है कि – “पुरुष की इन्द्रियों का सद्भूत अर्थ के साथ सम्प्रयोग (संनिकर्ष) होने पर जिस बुद्धि का जन्म होता है वह प्रत्यक्षप्रमाण है।" - यह व्याख्या गलत है 20 क्योंकि इन्द्रियों के अर्थ के साथ सम्प्रयोग होने पर संशयादि ज्ञानों का भी जन्म होता है, अतः अतिव्याप्ति दोष से ऐसा लक्षण संशयादि साधारण हो जायेगा - ऐसा कह कर न्यायवार्तिककार, न्यायमञ्जरीकार आदि न्यायदर्शन के पंडितो ने खंडन कर दिया है। कुमारिल भट्टने अपनी व्याख्या में इस दोष के वारणार्थ जो कहा है - (श्लो.वा.सू.४-प्रत्यक्ष श्लो. ३८) (संशयादि में) दुष्प्रयोग के निवारणार्थ ही सम्प्रयोग शब्द में 'सम्यग्'अर्थ द्योतक 'सम्' उपसर्ग को जोडा है। उस के सामने नैयायिकों 25 का प्रत्युत्तर यह है कि प्रयोग यानी इन्द्रिययोग (संनिकर्ष) का सम्यक्त्व है या नहीं यह कैसे पता चलेगा ? वह तो अतीन्द्रिय है, अतः संवादीप्रवृत्ति आदि फलविशेष के विना उस का अनुमान लगाना दुष्कर है। यहाँ वैसा अनुमान करने के लिये किसी फलविशेष का सूचक कोई भी पद सूत्र में तो नहीं है। अतः कार्यलिंगक अनुमान से प्रयोग के सम्यक्त्व का अवबोध शक्य न होने से दुष्प्रयोग का निवारण नहीं होगा। फलतः उक्त अतिव्याप्ति तदवस्थ ही रहेगी।
दूसरी बात यह कि 'बुद्धिजन्म' का प्रमाणत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि बुद्धि तो 'ज्ञाता' स्वरूप A. माठरवृत्ति में इस का व्याख्यान :- विषयं विषयं प्रति योऽध्यवसायो नेत्रादीनामिन्द्रियाणां पञ्चानां रूपादिषु पञ्चसु तत् प्रत्यक्षं प्रतिपत्तिरूपं दृष्टाख्यम् (माठर वृत्ति पृ.१२-पं.१०)
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