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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ अथाऽर्थान्तरत्वेऽपि प्रतिनियतविशेषसद्भावात् तेषामसौ वृत्तिः। नन्वसौ विशेषो यदि श्रोत्रादिविषयप्राप्तिस्वरूपः तदेन्द्रियार्थसंनिकर्षोऽभिधानान्तरेण प्रतिपादितो भवेत् । स च यद्यव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकः प्रत्यक्षं प्रमाणमभिधीयते तदाऽस्मत्पक्ष एव समाश्रितो भवेत् । अथ तथाभूतोपलब्ध्यजनकः, न तर्हि प्रमाणमसाधकतमत्वात्। ___अथाऽर्थाकारपरिणतिः श्रोत्रादीनां वृत्तिस्तदाऽत्रापि वक्तव्यम्- किमसौ परिणति: Aश्रोत्रादिस्वभावा उत धर्म: आहोस्विदर्थान्तरमिति ? पक्षत्रयेऽपि पूर्ववदोषाभिधानं विधेयम् । न च श्रोत्रादीनां विषयाकारपरिणतिः परपक्षे सम्भविनी, परिणामस्य व्यतिरिक्तस्याऽव्यतिरिक्तस्य चाऽसम्भवादिति प्रतिपादितत्वात् (द्वि० खण्डे पृ. ३४८-३४९)। प्रतिनियताध्यवसायस्तु श्रोत्रादिसमुत्थोऽध्यक्षफलम् न पुनरध्यक्ष प्रमाणमसाधकतमत्वात्।
विशिष्टोपलब्धिनिर्वर्तकत्वेनाध्यक्षत्वेऽस्मन्मतमेव समाश्रितं भवेत्। तन्न सांख्यमतानुसारिपरिकल्पित10 मध्यक्षलक्षणमुपपन्नम्।
जैसे भूतल से सर्वथा अर्थान्तर ही होता है न कि रूपादिवत् भूतलधर्म, उसी तरह संयोगसम्बन्धवाली वृत्ति भी श्रोत्रादि से सर्वथा अर्थान्तर रूप होने से स्वतन्त्र अर्थान्तर रूप सिद्ध होगी। यदि कहें कि - 'हम दूसरे विकल्प का, Bयानी श्रोत्रादि की वृत्ति स्वतन्त्र अर्थान्तररूप है - उस का स्वीकार करते हैं' - तो यह नहीं कहा जा सकेगा कि वह श्रोत्रादि की वृत्ति है, जैसे कि श्रोत्रादि से अर्थान्तर होने 15 वाले पटादि को कोई भी श्रोत्रादि की वृत्तिरूप नहीं मानते हैं। यानी वृत्तिस्वरूप लुप्त हो जायेगा।
[श्रोत्रादि से अर्थान्तररूप वृत्ति में प्रतिनियतविशेष के स्वरूप की छानबीन ] यदि कहा जाय- श्रोत्रादि से अर्थान्तरभूत वृत्ति में भी अपनी निजी एक ऐसी विशेषता है जिस से वह 'श्रोत्रादि की वृत्ति' कही जा सकती है। - तो पूछना पडेगा कि उस विशेषता का स्वरूप
क्या है ? यदि श्रोत्रादि के विषय की प्राप्ति (संनिकर्ष) यही उस का स्वरूप है तो नामान्तर से 20 आपने इन्द्रियार्थसंनिकर्ष का ही कथन कर दिया है। अब, यदि आप के कथन का तात्पर्य ऐसा है
कि अव्यभिचारि आदि विशेषणों से विशिष्ट अर्थोपलब्धि का जनक तो इन्द्रियार्थ संनिकर्ष है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है, तब तो आपने हमारे नैयायिक मत का ही आशरा ले रखा है। यदि आप तथाविध उपलब्धि का जनक न हो ऐसे इन्द्रियार्थ संनिकर्ष का आशरा लेंगे तो आप उसे 'प्रमाण' नहीं मान
सकते क्योंकि वह प्रमितिजनन में साधकतम नहीं है। 25
[अर्थाकारपरिणतिरूप वृत्ति होने पर विकल्पत्रयी ] यदि श्रोत्रादि की वृत्ति की व्याख्या ऐसी की जाय कि वह ‘अर्थाकारपरिणति' रूप है- तो यहाँ भी तीन विकल्प प्रश्नों का उत्थान होगा- Aयह परिणति श्रोत्रादि का स्वभाव है (यानी अव्यतिरिक्त) है या Bउस का धर्म है अथवा अर्थान्तर ही है ? पहले (पृ०२६१ में) वृत्ति के अव्यतिरिक्त, धर्म
और अर्थान्तर इन तीन विकल्पों में जैसे दोषप्रवेश दिखाया गया है वे सब दोष यहाँ परिणति के 30 तीन पक्षों में भी प्रविष्ट होंगे। तात्पर्य यह है कि सांख्य मत में श्रोत्रादि की अर्थाकार यानी विषयाकार
परिणति सम्भवित ही नहीं है, क्योंकि पहले यह कहा जा चुका है कि परिणाम अपने परिणामी से व्यतिरिक्त भी नहीं हो सकता एवं अव्यतिरिक्त भी नहीं घट सकता, इस लिये उस की सत्ता असिद्ध है।
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