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________________ २६१ खण्ड-४, गाथा-१ शाक्यदृष्ट्याऽध्यक्षमतिः प्रमाणं न भवति तथा विन्ध्यवासिपरिकल्पिताऽपि सा प्रमाणं न युक्ता। न च सांख्यदर्शनकल्पितस्य श्रोत्रादेः पदार्थस्य सिद्धिः, सत्कार्यवादसिद्धौ तत्पदार्थव्यवस्थितेः तस्य च निषिद्धत्वात् । किञ्च, श्रोत्रादीनां वृत्तिस्तेभ्यो यद्यव्यतिरिक्ता तदा श्रोत्रादिकमेव, तच्च सुप्तमत्ताद्यवस्थास्वपि विद्यत इति तदाप्यध्यक्षप्रमाणप्रसक्तिरिति सुप्तादिव्यवहारोच्छेदः। अथ व्यतिरिक्ता तेभ्यो वृत्तिः तदा वक्तव्यम् Aकिमसौ तेषां धर्ममात्रम् Bआहोस्विदर्थान्तरम् ? यद्याद्य पक्षः तदा वृत्तेस्तैः सम्बन्धो वक्तव्यः। यदि 5 तादात्म्यम् तदा श्रोत्रादिमात्रमेवासाविति पूर्वोक्तो दोषः। अथ सिमवायः तदाऽयुतसिद्धिप्रसक्तिः इति व्यापिश्रोत्रादिसद्भावे सति नियतदेशा वृत्तिरभिव्यज्यत इति प्लवते। अथ संयोगः तदार्थान्तरप्रसक्तिरिति न तद्धर्मो वृत्तिर्भवेत्। Bअथार्थान्तरं वृत्तिः नासौ वृत्तिः अर्थान्तरत्वात् पटादिवत् । निर्विकल्प वृत्ति (वृत्ति यानी बुद्धिव्यापार परिणति) ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। नैयायिक ने इस सांख्यलक्षण का भी निरसन कर दिया है। कैसे यह देखिये - बौद्धमत में निरूपित निर्विकल्प प्रत्यक्ष मति का 10 जिन युक्तियों से निरसन पूर्वग्रन्थ में यह कह कर किया गया है कि निर्विकल्प बद्धि प्रमाण नहीं है, उन युक्तियों से विन्ध्यवासिप्रोक्त निर्विकल्प मति के प्रामाण्य का भी निरसन हो जाता है। दूसरी बात यह है कि सांख्यदर्शन की प्रक्रिया में जिस तरह श्रोत्रादि पदार्थों की कल्पना की गयी है वह भी प्रमाणसिद्ध नहीं है, क्योंकि उस की प्रक्रिया की बुनियाद है सत्कार्यवाद, उस की सिद्धि होने पर ही सांख्याभिमत पदार्थव्यवस्था प्रमाणभूत होगी। किन्तु (दूसरे खंड में पृ.३५०-५०१ आदि में) 15 सत्कार्यवाद का पूर्व में निषेध किया जा चुका है। [श्रोत्रादि की वृत्ति का विकल्प द्वारा परीक्षण ] विशेष चर्चा इस तरह है - यह जो श्रोत्रादि की वृत्ति कहते हैं वह श्रोत्रादि से पृथक् है या अपृथक् ? यदि अपृथक् मानेंगे तो श्रोत्रादि ही स्वयं वृत्तिरूप बने, वह तो निद्राकाल एवं मदमत्त मूर्छा अवस्था में भी विद्यमान ही है, अत एव निद्रादि अवस्था में भी प्रत्यक्ष प्रमाण-प्रवृत्ति को मानने 20 की विपदा आयेगी, फलतः निद्रादि अवस्था के व्यवहार का भी लोप होगा क्योंकि प्रमाणप्रवृत्ति तो जाग्रत अमूर्छित अवस्था में होती है। यदि वत्ति को श्रोत्रादि से पथक स्वीकार करेंगे - तो इन दो विकल्पों का उत्तर देना होगा - Aपृथक् वृत्ति श्रोत्रादि का सिर्फ धर्म मात्र है या Bश्रोत्रादि के धर्म से बिलकुल स्वतन्त्र कुछ अर्थान्तर ही है ? Aप्रथमपक्ष में, धर्मस्वरूप वृत्ति का श्रोत्रादि के साथ कौन सा सम्बन्ध बैठता है यह दिखाईये। 25 यदि तादात्म्य सम्बन्ध मानेंगे तो पहले जो अपृथक् पक्ष में निद्रादि अवस्था के लोप आदि का दोष दिखाया है वही प्रसक्त होगा, क्योंकि तादात्म्य सम्बन्ध से वृत्ति का मतलब यही होगा कि वह केवल श्रोत्रादि मात्र ही है और कुछ नहीं। यदि समवाय सम्बन्ध मानेंगे तो श्रोत्रादि और वृत्ति – इन दोनों में अयुत (अपृथग्भाव) सिद्धि की प्रसक्ति होगी। फलतः श्रोत्रादि इन्द्रिय गगनादि रूप होने के कारण सर्वदेश में उन की वृत्ति भी व्यापकरूप से रह जायेगी, तब आप का यह मत कि 'श्रोत्रादि की वृत्ति 30 नियतदेश में ही अभिव्यक्त होती है' (इस लिये सर्व शब्दों का एक साथ ग्रहण नहीं हो सकता)' - यह मत डूब जायेगा। यदि श्रोत्रादि और वृत्ति का संयोग सम्बन्ध मानेंगे तो संयोगसम्बन्धवाला घट Jain Educationa International www.jainelibrary.org For Personal and Private Use Only
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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