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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रतिषिद्धमनुमतमिति हि तन्त्रयुक्तिः । न चैवं घ्राणादीनामप्यनभिधानं प्रसज्यते घ्राणादेरप्यनभिधाने स्वमतस्यैवाभावात् परमतमिति व्यपदेशाऽसम्भवात्। अस्ति च “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' (न्यायद. १-१-१६) इति वचनात् मनसोऽभिधानम्। इन्द्रियत्वेन इन्द्रियानन्तरं त्वनभिधानं वैधादित्युक्तम्। तन्न अव्याप्तिर्दोष इति स्थितम् ।
[ नैयायिककृतं विन्ध्यवासिप्रत्यक्षलक्षणनिरसनम् ] __“श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका” ( ) इति विन्ध्यवासिप्रत्यक्षलक्षणमनेनैव निरस्तम्। यथा ह्यविकल्पिका नहीं होती। आत्मा-मन संनिकर्ष के द्वारा बहिरिन्द्रियग्राह्य रूपादि एवं बहिरिन्द्रियअग्राह्य सुख-दुःखादि का भी ग्रहण होता है, यानी मन सर्वविषयस्पर्शी है। सुख-दुःखादि का ग्रहण बहिरिन्द्रियों से नहीं होता, अतः वे सर्वविषयक नहीं है।
[अव्यवधान से मन के निरूपण का दूसरा कारण ] अव्यवधान से मन का निरूपण नहीं किया उस का दूसरा समाधान है तन्त्रयुक्ति। उस का मतलब यह है कि जिस परमत का निषेध नहीं किया जाता उस में सम्मति मानी जाती है - यह है तन्त्रयुक्ति । परमत में मन को ‘इन्द्रिय' कहा गया है। न्याय मत में कहीं भी इस परमत का खंडन नहीं है,
अत एव परमतीय (वैशेषिकमत से) 'मन का इन्द्रियत्व' न्यायमत में भी मान्य सिद्ध होता है। यदि 15 पूछा जाय - समान न्याय से घ्राणादि इन्द्रियों में भी इन्द्रियत्व सिद्ध हो जायेगा, फिर उन का निरूपण
करने की जरूर क्या थी ? – उत्तर यह है कि – घ्राणादि के बारे में कुछ भी न कहा जाय तो इन्द्रिय के बारे में अपना ‘स्वमत' जैसा कुछ भी न रहा, स्व और पर तो सापेक्ष होते हैं, जब यहाँ कोई स्वमत ही नहीं होगा (यानी घ्राणादि इन्द्रियों के लिये अपना कुछ निरूपण ही नहीं रहेगा)
तो अन्य दर्शनों के लिये ‘परमत' ऐसा उल्लेख करने के लिये कुछ आधार ही नहीं रहेगा, फिर उस 20 के अनिषेध से उस के स्वीकार की तन्त्रयुक्ति निरवकाश बन जायेगी, यहाँ उस का अवतार ही कैसे
होगा ? तात्पर्य, घ्राणादि इन्द्रियों का निरूपण न करने पर, परमत के आलम्बन से भी उन की सिद्धि नहीं होगी। स्वमत से घ्राणादि इन्द्रियों का निरूपण करने पर और मन का 'इन्द्रिय' रूप से निरूपण न करने पर, मन के लिये (घ्राणादि इन्द्रिय हैं - इस) स्वमत सापेक्ष ‘परमत' की सिद्धि
होने पर, तन्त्रयुक्ति से मन का इन्द्रियत्व सिद्ध हो सकता है। ऐसा नहीं है कि मन का स्वमत 25 में निर्देश ही नहीं है - निर्देश तो है - “एक साथ अनेक घ्राणादि इन्द्रियों के द्वारा अनेक ज्ञानों
की अनुत्पत्ति मन का लिंग है" - ऐसा न्यायसूत्र (१-१-१६) है। इस से मन के लिये भी स्वमत का निरूपण सिद्ध है। फिर भी वहाँ घ्राणादि इन्द्रियों के निरूपण के अव्यवधान से स्पष्टरूप से इन्द्रियत्व का निरूपण नहीं किये जाने का मुख्य उद्देश तो पहले कह दिया है - भूतस्वभावता और अभूतस्वभावता (एवं सर्वविषयता-असर्वविषयता) रूप वैधर्म्य ।
इस प्रकार मन का इन्द्रियत्व सिद्ध हो जाने पर, पूर्वोक्त सुखादि साक्षात्कार में प्रत्यक्षत्व की अव्याप्ति का दोष जो प्रत्यक्षलक्षण में आपादित था - वह भी निराकृत हो जाता है।
[सांख्यवादी विन्ध्यवासी कृत प्रत्यक्षलक्षण की परीक्षा ] वृद्ध सांख्यवादी विन्ध्यवासी पंडित ने प्रत्यक्ष का ऐसा लक्षण किया है - श्रोत्रादि इन्द्रियों की
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