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खण्ड-४, गाथा-१
२५९ सूत्रपञ्चकमेतल्लक्षणार्थं प्रत्येकमिन्द्रियाणाम् न पुनर्विभागार्थम्, आदिसूत्रोद्दिष्टस्य भेदवतो विभागाभ्युपगमात् । विभक्तिविभागे चानवस्था विभागार्थे वा बाह्यानामित्यध्याहारः कार्य: स्वलक्षणसामर्थ्यात् ।
मनसस्तु तदनन्तरं लक्षणानुपदेशो वैधात् । तच्च तस्याभूतस्वाभाव्यात्। भूतस्वाभाव्येनेन्द्रियाणि व्यवच्छिद्यन्ते 'भूतेभ्यः' (न्यायद.१-१-१२) इति वचनात् । न तु मनस एतल्लक्षणमस्ति। अत एव सर्वविषयत्वं मनसः, न त्विन्द्रियाणि बाह्यानि सर्वविषयाणि। तन्त्रयुक्त्या वा मनसोऽनभिधानम् । परमतम- 5 भूतशब्द का प्रयोग किया है। वह इन्द्रिय का विशेषण है अतः जो भूतस्वभाव भी है वह घ्राणेन्द्रिय है वह सूचित होता है। (२) जिस से चक्षण (दर्शन) होता है वह चक्षु इन्द्रिय है। वह रूपसाक्षात्कार का कारण है। न्यायमत में प्राप्यकारी होने से चक्षुसंनिकर्ष में भी इस लक्षण की अतिव्याप्ति संभवित है। उस की निवृत्ति के लिये 'भूत' शब्द का प्रयोग यहाँ भी जोड लेना है। यद्यपि 'भूत' शब्द प्रयोग करने पर भी दीपक आदि में अतिव्याप्ति रह जायेगी क्योंकि वह भी रूपसाक्षात्कार का कारण एवं 10 भूतात्मक ही है। उस की निवृत्ति के लिये 'इन्द्रियाणाम्' इस पद की सार्थकता स्पष्ट है। प्रदीप आदि इन्द्रियात्मक नहीं है। इस प्रकार सूत्रसमूहान्तर्गत स्पर्शनादि के लक्षणसूत्रों का भी अर्थ स्वयं समझ लेना।
इस प्रकार यह एकसूत्रान्तर्गत पंचसूत्रसमूह का निर्देश इन्द्रियों का विभाग दर्शाने के लिये नहीं है किन्तु एक एक इन्द्रियों के लक्षण का निरूपण करने के लिये है। विभाग का प्रतिपादन तो तभी शक्य है जब कि पूर्वसूत्र में पहले भिन्न भिन्न पदार्थों के समूह का किसी सामान्यरूप से निर्देश किया 15 गया हो। इन्द्रियों का विभाग तो स्वयं लोकसिद्ध है, पुनश्च उस का यहाँ विभाग दर्शाने पर, पुनः पुनः विभक्त के विभाग दर्शाने की विपदा आने से अनवस्था दोष प्रसक्त होगा। फिर भी यदि किसी विद्वान् का ऐसा आग्रह हो कि 'इस सूत्र से विभाग भी प्रदर्शित किया गया है, उस में मन के न लेने से वह इन्द्रिय होने की विपदा तदवस्थ रहेगी।' - तो उस का दूसरा भी समाधान है कि इस सूत्र में 'बाह्य' शब्द का अध्याहार मान लेना। तात्पर्य, इस सूत्र में बाह्य इन्द्रिय का ही विभाग 20 कहा गया है, मन बाह्यकरण नहीं किन्तु अन्तःकरण होने से उस का यहाँ ग्रहण नहीं किया है, न कि उस के 'इन्द्रिय' न होने के कारण।
[ इन्द्रियलक्षण के बाद तुरंत मन का निरूपण क्यों नहीं ] प्रश्न :- इन्द्रियों के लक्षण-कथन के बाद अव्यवधान से (१३ वे सूत्र में) मन का लक्षण न कह कर व्यवधान से १६ वे सूत्र में ('युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्हि मनसो लिङ्गम्” - न्यायद. १-१-१६) 25 उस का लक्षण क्यों कहा ?
उत्तर :- बाह्य इन्द्रियों से अन्तःकरण का वैधर्म्य = विभिन्नता को सूचित करने के लिये। मन अभूतस्वभाव है, न तो वह भूत है, न भौतिक है। सूत्रकार ने 'घ्राण-रसन-चक्षुस्-त्वक्-श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः' (न्यायद. १-१-१२) सूत्र में घ्राणादि के भूतस्वभावता का निर्देश कर के इन्द्रियों में अभूतस्वभावता (वाले मन) का व्यवच्छेद कर दिया है। भूतस्वभावता लक्षण मन में नहीं है। यही कारण है कि 30 इन्द्रियों के लक्षण के बाद अव्यवधान से मन का लक्षण नहीं कहा गया। इन्द्रियों की भूतस्वभावता के कथन से यह वैधर्म्य भी सूचित हो जाता है कि मन सर्वविषयक है जब कि इन्द्रियाँ सर्वविषयक
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