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________________ २५८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ग्रहणेनाऽविरोधः। ततः प्रत्यक्षसूत्रे एवेन्द्रियत्वं मनस: सिद्धम् तत्सिद्धौ च नाऽव्याप्तिर्लक्षणदोषः। इन्द्रियसूत्रे च मनसोऽपाठः तत्सूत्रस्य (न्या. १-१-१२) नानात्चे इन्द्रियाणां लक्षणपरत्वात् । सूत्रशब्देन हि जात्यपेक्षया सूत्रसमूह एवोच्यते तेन लक्षणसूत्रसमूहोद्देशार्थं तत्सूत्रम् । तथा च 'जिघ्रत्यनेनेति घ्राणं भूतं गन्धोपलब्धौ कारणम् ‘घ्राणम्' इत्यभिधीयमाने सन्निकर्षे प्रसङ्गः तन्निवृत्त्यर्थं 'भूतम्' इति भूतस्वभावत्वं 5 विशेषणम् । एवं 'चष्टे अनेन' इति चक्षू रूपोपलब्धौ कारणम्। सन्निकर्षे प्रसङ्गः तन्निवृत्त्यर्थं भूतग्रहणं सम्बन्धनीयम्। प्रदीपे प्रसङ्गः तन्निवृत्त्यर्थमिन्द्रियाणामिति वाच्यम् । एवं त्वगादिष्वपि योज्यम्। एवं च इस मत पर कोई अव्याप्ति की शंका करता है – “मन की गति यदि सुखसाधनत्व के ग्रहण के लिये हो सकती है तो यह सुखसाधनता का ज्ञान प्रत्यक्ष का फल नहीं कहा जा सकता, भले ही वह मनः-अर्थ के संनिकर्ष से जन्य हो। कारण, मन कोई ‘इन्द्रिय' नहीं है, क्योंकि इन्द्रियनिरूपक 10 सूत्र (न्या.द. १-१-१२) में श्रोत्रादि पाँच का ही उल्लेख है, मन का नामोच्चार नहीं है। आप तो सुखसाधनत्वविषयक ज्ञान को प्रत्यक्षफल मानते हैं किन्तु उस में इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्व नहीं है (क्योंकि मन 'इन्द्रिय' नहीं है)। फलतः यहाँ प्रत्यक्षलक्षण की अव्याप्ति होगी।” – यह शंका गलत है। कारण, मन भी ‘इन्द्रिय' ही है क्योंकि उस में इन्द्रिय के धर्म (लक्षण) का समन्वय है। इन्द्रिय का धर्म है पूर्वदृष्ट या पूर्वअदृष्ट उभयप्रकार के विषयों को ग्रहण करना। (अनुमानादि तो पूर्वदृष्ट-पूर्वज्ञात का 15 ही ग्राहक होता है, कभी तो पूर्वज्ञात का भी ग्रहण उन से नहीं होता)। मन में यह लक्षण विद्यमान हैं, तभी उस से पूर्वज्ञात या पूर्वअज्ञात विषयों का प्रत्यक्षग्रहण उत्पन्न होता है। इस स्थिति में इन्द्रिय निरूपक सूत्र भी इस इन्द्रिय लक्षण से अन्वित सभी का (सभी इन्द्रिय चाहे मन हो या श्रोत्रादि, उन सब का) संग्रह कर लेता है। इस तरह प्रत्यक्षनिरूपक सूत्र से ही मन का इन्द्रियपन सिद्ध होता है और उस के सिद्ध होने पर प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण का समन्वय सुखसाधनत्वज्ञान में हो जाने 20 से अव्याप्ति दोष का उद्धार हो जाता है। [इन्द्रियसूत्र में मन के अग्रहण का कारण ] प्रश्न :- मन यदि इन्द्रिय है तो 'घ्राण-रसन-चक्षुस्-त्वक्-श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः' - (१-१-१२) इस इन्द्रियदर्शकसूत्र में मन का नाम क्यों नहीं लिया ? उत्तर :- वह सूत्र विभागद्योतक नहीं है, सिर्फ लक्षण-प्रदर्शक ही है क्योंकि इन्द्रिय एक नहीं 25 अनेक हैं। यहाँ ‘इन्द्रियसूत्र' शब्द में 'सूत्र' शब्द से कोई एक सूत्रव्यक्ति का निर्देश नहीं किन्तु भिन्न भिन्न इन्द्रियों के पृथक् पृथक् लक्षणों के सूचक पूरे सूत्र समुदाय का निर्देश ग्रहण करना, क्योंकि यहाँ ‘सूत्र' शब्द व्यक्तिवाचक न हो कर जातिवाचक होने से सूत्रसमूह का ही निर्देशक है। [ प्रत्येक इन्द्रिय के लक्षण ] उन में 'घ्राण' इत्यादि सूत्रों का यह अर्थ है - 30 (१) जिस से सूंघा जाता है वह भूतात्मक घ्राणेन्द्रिय है जो कि गन्ध साक्षात्कार का कारण ___है। यहाँ 'भूत' शब्द छोड कर सिर्फ 'घ्राण' इतना ही कहा जाय तो 'जिस से' पद द्वारा इन्द्रियार्थसंनिकर्ष में अतिव्याप्ति होगी क्योंकि वह भी सूंघने का कारण है। अतिव्याप्ति के निवारण के लिये यहाँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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