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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २५७ च 'सुखसाधनोऽयम्' इत्यानुमानिकफलजनकत्वेनानुमानप्रमाणता। न च सुखसाधनत्वज्ञानमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजम् शक्तेरसंनिहितत्वात् । शक्तिर्हि सहकारिकारणान्तरसांनिध्यम् तच्चाऽसंनिहितम् इति नाध्यक्षप्रमाणफलं सुखसाधनत्वज्ञानमिति केचित्। ____ अपरे तु - बाह्येप्यर्थे विशेष्याकृष्टमसंनिहिते विशेषणे मनः प्रवर्त्तते इति मनोलक्षणेन्द्रियार्थसंनिकर्षजमध्यक्षप्रमाणफलमेतज् ज्ञानम्- इति सम्प्रतिपन्नाः। नन्वेवमप्यव्यापकं लक्षणम् आत्मसुखादिविषयज्ञानस्या- 5 ऽप्रत्यक्षफलत्वात्, तच्च मनसोऽनिन्द्रियत्वात्, अनिन्द्रियत्वं तु मनस इन्द्रियसूत्रे (१-१-१२)ऽपरिपठितत्वात् । प्रत्यक्षफलता च तद्विषयज्ञानस्याभ्युपगम्यते । असदेतत्- मनस इन्द्रियधर्मोपेतत्वेनेन्द्रियत्वात् । अधिगतानधिगतविषयग्राहकत्वमिन्द्रियधर्मः स च मनसि विद्यत एव तेनेन्द्रियधर्मोपेतस्य सर्वस्यैव प्रत्यक्षसूत्रे इन्द्रियज्ञान प्रमाण बनेगा तब हेयोपादेयबुद्धि को फल मानेंगे' ऐसा स्पष्ट 'ज्ञान का प्रामाण्य' निर्दिष्ट है। नैयायिक :- यह दोष भी नहीं है क्योंकि ज्ञान के फल में भी सूत्रोक्त लक्षण संगत होने से 10 ज्ञान का प्रामाण्य अक्षुण्ण है। इस लक्षण के अनुसार स्मृति भी 'प्रमाण' बन सकती है - देखिये, अनुभवज्ञान की परम्परा में जब कभी भावि में स्मृति होती है, उस स्मृति के बल से जो ‘यह भी वैसा ही है' ऐसा ज्ञान होता है वह प्रत्यक्षरूप फल है क्योंकि इन्द्रियसंनिकर्षजन्य है, इस प्रत्यक्ष फल के कारणभूत होने से स्मृति भी 'प्रमाण' बन सकती है। तथा पूर्वानभत सख या दुःख के सम्बन्ध की जब वर्त्तमानकालीन सख या दःख है तब इन्द्रियार्थसंनिकर्ष की सहकारिणी बन कर भूतकालीन-वर्तमानकालीन सुख/दुःख की समानता का प्रत्यक्षज्ञान निपजाती है, तो इस सारूप्यज्ञानप्रत्यक्ष के प्रति स्मृति ‘प्रमाण' मानी जाती है। जब कभी वर्तमानकालीन सुख के साधन में भूतकालीनसुखसाधन की समानता का ज्ञान होता है तब वहाँ इन्द्रियार्थसंनिकर्षव्यापार के न होने से, 'यह भी सुख का साधन है' ऐसा अनुमिति फल निपजता है, इस फल के प्रति वह (वर्तमानकालीन सुखहेतु में भूतकालीनसुखहेतु के) सारूप्य का ज्ञान 20 'अनुमानप्रमाण' बन सकता है। यहाँ सुखसाधनत्व का ज्ञान ('यह भी सख का साधन है' ऐसा ज्ञान) इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य मानना वाजीब नहीं है क्योंकि सुख-दुःख की साधनता 'शक्ति' रूप है जो इन्द्रियसंनिकृष्ट (इन्द्रियग्राह्य) नहीं हो सकती। यहाँ शक्ति का तात्पर्य है अन्य सहकारि कारणों का सांनिध्य, (अन्य सहकारि कारणों में काल-अदृष्टादि शामिल है) जो इन्द्रिय अगोचर हैं अत एव यहाँ सुखसाधनत्व का ज्ञान प्रत्यक्षफलरूप न होने से सारूप्य ज्ञान को 'प्रत्यक्षप्रमाण' नहीं बना सकते। 25 [ सुखसाधनत्व की प्रत्यक्षता का उपपादन-अन्यमत 1 'यह सुखसाधन है' इस (फलज्ञानजनक) सारूप्यज्ञान को दूसरे वादी ‘प्रत्यक्षप्रमाण' रूप ही मानते हैं। उन का कहना है - शक्ति भले असंनिहित हो किन्तु जब मन विशेष्य के ग्रहण में प्रवृत्त होता है तब विशेष्य से आकृष्ट मन असंनिहित बाह्यार्थरूप विशेषण में भी गति कर ही लेता है, तो शक्ति को भी क्यों ग्रहण न करेगा ? इस लिये मनःस्वरूप इन्द्रिय और सुखसाधनत्वरूप विषय का 30 संनिकर्ष घटित होने से तथाविधसंनिकर्षजन्य फलज्ञान भी प्रत्यक्षप्रमाण का ही कार्य है – इस प्रकार वे वादी सुखसाधनत्व के प्रत्यक्ष में संमत हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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