________________
२५६
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ सामग्यम् तथाविधफलजनकत्वात् । अव्यपदेश्यमपि, तच्छब्देन सहाऽव्यापारात् । तदेवं सूत्रोपात्तविशेषणयोगित्वं सामग्यस्य तथाविधफलजनकत्वेन, न स्वतः, इति न युक्तस्तत्पक्षोऽपि।
[फलविशेषणपक्षसमर्थनेन नैयायिक-प्रत्युत्तरः ] ‘तमुनर्थकं सूत्रम्'। न, फलविशेषणपक्षस्योपपत्तेः । ननु “तत्रापि ‘यतः' इत्यध्याहारोऽस्त्येव दोषः”। 5 न, तावन्मात्रेण सकलदोषविकलाभिमतपक्षसिद्धः। अत:- 'तथाविधं' ज्ञानं यतो भवति तत् प्रत्यक्षम्'
इति सकलदोषविकलं प्रत्यक्षलक्षणं सिद्धम्। नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ज्ञानस्य प्रामाण्यं न लभ्यते, इष्टं च तस्य प्रामाण्यम्- “यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा हानादिबुद्धयः फलम्” (वात्स्या. भा. १-१-३) इति वचनात् । नैष दोषः, ज्ञानस्याप्येवंविधफलजनकत्वेन प्रमाणत्वात्। तथा चानुभवज्ञानवंशजायाः स्मृतेः 'तथा चायम्'
इत्येतद् ज्ञानमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वात् प्रत्यक्षं फलं, तत्स्मृतेस्तु प्रत्यक्षप्रमाणता। सुख-दुःखसम्बन्धस्मृतेस्त्वि10 न्द्रियार्थसंनिकर्षसहकारित्वात् 'तथा चायम्' इति सारूप्यज्ञानजनकत्वेनाऽध्यक्षप्रमाणता। सारूप्यज्ञानस्य
की जनक होने से, ‘सामग्र्यं ज्ञानं' ऐसी व्याख्या करनी पडेगी जिस का मतलब होगा कि ज्ञान स्वयं सामग्री नहीं किन्तु वह सामग्री का फल है। किन्तु 'ज्ञान' पद का ज्ञानफलक (सामग्री) ऐसा अर्थ औपचारिक होने से स्वाभाविक नहीं है। वैसे ही अव्यभिचारि और व्यवसायात्मक पद का भी 'ज्ञान'
पद की तरह अव्यभिचारि व्यवसाय फलक ऐसा औपचारिक अर्थ ही करना पडेगा। तथा अव्यपदेश्य 15 पद का भी सामग्री के साथ अन्वय विशेषण-विशेष्यरूप से संभव नहीं है क्योंकि उस शब्द के साथ
(यानी सामग्री शब्द के साथ) मिल कर एकार्थबोधकतारूप व्यापार ‘अव्यपदेश्य' पद में है नहीं अतः यहाँ भी औपाचारिकता का आशरा लेना होगा।
निष्कर्ष, सामग्रीविशेषणपक्ष युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि इस पक्ष में सामग्र्य में सूत्रोक्त विशेषणों का अन्वय स्वतःसिद्ध यानी वास्तविकरूप से शक्य नहीं है, औपचारिकरूप से सूत्रोक्तविशेषणस्वरूपफल 20 के जनकत्व को ले कर अन्वय करना पडता है।
[ फलविशेषणादि पक्षत्रय के आक्षेप का प्रत्युत्तर - नैयायिक ] “तीनों पक्ष जब असंगत हैं तो फलितार्थ यह हुआ कि सूत्र बेकार है।” – इस प्रकार के आक्षेपों के प्रति नैयायिक अब अपना प्रत्युत्तर करते कहते हैं -
नहीं, सूत्र बेकार नहीं हो सकता। तीन पक्षों में से जो पहला फलविशेषणपक्ष है उस का हम 25 सयुक्तिक स्वीकार करते हैं। वहाँ ‘यतः' पद के अध्याहार का जो दोष लगाया गया है वह दूषण
नहीं किन्तु भूषण है। ‘यतः' का अध्याहार करने से सकलदोषमुक्त आप्तसंमत लक्षण सिद्ध होता है। 'यतः' पद जोडने से फलितार्थ यह होगा कि 'सूत्रोक्त विशेषणों से विशिष्ट ज्ञानात्मक फल जिस (संनिकर्षादि करण) से निपजता है वही प्रत्यक्ष है।' इस लक्षण में व्यधिकरणत्व का दोष नहीं है, न तो कहीं
अव्याप्ति होगी, न कहीं अतिव्याप्ति, न तो कोई क्लिष्ट कल्पना, अत एव सकल पूर्वोक्त दोषों से 30 मुक्त प्रत्यक्षलक्षण सिद्ध हो जाता है।
प्रतिवादी :- इस पक्ष में तो ज्ञानजनक करण (संनिकर्षादि) का प्रामाण्य अक्षुण्ण रहा किन्तु ज्ञान का तो प्रामाण्य लुप्त हो गया। जब कि वह सूत्रकार को मान्य है - वात्स्यायन भाष्य में 'जब
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org