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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २५५ सर्वस्य ज्ञानस्य ज्ञानपूर्वकत्वानभ्युपगमात् । विशेष्यज्ञानादीनामेव विशेषणज्ञानादिपूर्वकत्वं नान्येषां, प्रतिबन्धाभावात् । 'बोधरूपता प्रतिबन्ध' इति चेत् ? न, अबोधस्वभावादपि बोधस्योत्पत्त्यविरोधाद्, अन्यथा अधूमस्वभावादग्नेधूमोत्पत्तिर्न भवेत् । 'तस्य तज्जननस्वभावत्वाददोष' इति चेत् ? न, इतरत्राप्यस्य समानत्वात् तथाहि- अबोधात्मिका कारणसामग्री बोधजननस्वभावत्वात् तं जनयिष्यतीति न प्रतिबन्धः। तस्मादबोधात्मकस्यापि प्रमाणत्वमभ्युपगन्तव्यमित्यव्यापकत्वं लक्षणदोषः। तन्न स्वरूपविशेषणपक्षोऽपि 5 युक्तिसंगतः। __नापि सामग्रीविशेषणपक्षः तत्रास्यौपचारिकत्वात्। तथाहि- सामग्रीविशेषणपक्षे इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नमित्युपपन्नमिति व्याख्येयम् तच्चाऽयुक्तम् उत्पत्तिशब्दस्य स्वरूपनिष्पत्तौ प्रसिद्धत्वात् । तथा ज्ञानशब्दोऽपि सामग्रीविशेषणपक्षे ज्ञानजनकत्वात् ‘सामग्र्यं ज्ञानम्' इति व्याख्येयम् । एवमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं च इस लिये ज्ञानपूर्वक ही होते हैं ऐसी व्याप्ति प्रसिद्ध है - तो यह भी गलत है क्योंकि वैशेषिक 10 (एवं नैयायिकों) का ऐसा अभ्युपगम (मान्यता) नहीं है कि सब ज्ञान ज्ञानपूर्वक ही होता है। हाँ, सब विशेष्यज्ञान विशेषणज्ञानपूर्वक ही हो - ऐसा नियम मान सकते हैं किन्तु ज्ञान मात्र में ज्ञानपूर्वकत्व की व्याप्ति असिद्ध है। ___ यदि कहें कि - ‘कार्य कारणानुरूप ही होना चाहिये, अतः जागृति में बोधस्वभावी कार्य भी (सुषुप्तिकालीन) बोधात्मक कारण से ही उत्पन्न हो सकेगा।' - तो यह भी गलत है, अबोधस्वभावी 15 कारण से बोधात्मक कार्य की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है। यदि कारणानुरूप ही कार्य मानेंगे तो अग्नि से धूम की उत्पत्ति कभी नहीं होगी। यदि कहें कि अग्नि में धूमोत्पादकस्वभाव होने से उस से धूमोत्पत्ति हो सकेगी - तो यहाँ भी संनिकर्ष का ज्ञानोत्पादकस्वभाव होने से उस से ज्ञान की उत्पत्ति हो सकेगी - यह बात समान है। तात्पर्य, कारणसामग्री भले ही अबोधात्मक हो किन्तु वह बोधोत्पादकस्वभाववाली होने से वह बोध को उत्पन्न कर सकती है, अत एव बोध 20 से ही बोध की उत्पत्ति की व्याप्ति नहीं बन सकती। निष्कर्ष - संनिकर्ष को प्रमाण मानना ही होगा भले ही वह अबोधात्मक हो। अत एव पूर्वोक्त (ज्ञानस्वरूप प्रमाण) लक्षण की उस में अव्याप्ति का दोष दुर्निवार रहता है। इस लिये ही दूसरा स्वरूपविशेषण पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है। [सामग्रीविशेषणपक्ष की अयोग्यता का विमर्श ] तीसरापक्ष :- यदि 'इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न' आदि विशेषण, सामग्री के लिये प्रयुक्त करेंगे तो वह मात्र औपचारिकता ही रह जायेगी। कारण, सामग्री में उन विशेषणों के अन्वय की योग्यता ही नहीं है। अत एव, इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से 'उत्पन्न' के बदले इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से ‘उपपन्न' ऐसी व्याख्या करनी पडेगी। उपपन्न यानी घटित, अर्थात् सामग्री इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से उत्पन्न नहीं किन्तु घटित है (इ.सं. भी सामग्री का एक घटक है) ऐसा अर्थ करना पडेगा। किन्तु वह भी निर्दोष नहीं है क्योंकि उत्पत्ति 30 का प्रसिद्ध अर्थ है कार्य को स्वरूपलाभ । तथा सामग्रीविशेषणपक्ष में सामग्री में ज्ञान का सीधा अन्वय उचित न होने से. सामग्री ज्ञान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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