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________________ २६४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ सम्भवत्येव बुद्धर्ज्ञातृव्यापारलक्षणायाः पूर्वमेव प्रमाणत्वनिषेधात्। यैस्तु 'नेदं प्रत्यक्षलक्षणविधानं किन्तु लोक-प्रसिद्धप्रत्यक्षानुवादेन प्रत्यक्षस्य धर्मं प्रत्यनिमित्तत्वविधानम्' ( ) इति व्याख्यातम् तैरपि वाच्यम्कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्मं प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते ? Aकिमस्मदादिप्रत्यक्षस्य उत Bयोगिप्रत्यक्षस्य ? इति । तत्र यद्याद्य:A पक्षः स न युक्तः सिद्धसाध्यताप्रसक्तेः। द्वितीयपक्षोऽप्ययुक्तः, योगिप्रत्यक्षस्य 5 स्वमतेनाऽसिद्धत्वात् । न चाऽसिद्धस्याऽनिमित्तत्वविधानम् अन्यथा खरविषाणादेरपि तं प्रत्यनिमित्तत्वविधिर्भवेत्। न च योगिप्रत्यक्षं परेणाऽभ्युपगतम् इति तं प्रति तस्य तदनिमित्तत्वं साध्यत इति वक्तव्यम् – यतो यदि प्रमाणतस्तत् तेनाभ्युपगतं तदा प्रमाणप्रसिद्धस्य भवतोऽपि प्रसिद्धत्वात् कथं तस्य तदनिमित्तत्वं साध्येत तन्निमित्ततयैव योगिप्रत्यक्षस्य प्रमाणप्रसिद्धत्वात् ? अथाऽप्रमाणतस्तत् तेनाऽभ्युपगतम् तदा है, ज्ञाता या ज्ञातृव्यापार कोई प्रमाणस्वरूप नहीं है। पहले ही उस के प्रमाणत्व का पूर्वग्रन्थ में निषेध 10 किया हुआ है। (प्रथम खंड में ज्ञातृव्यापारस्वरूप प्रमाण का खंडन आ गया है - (२०-१))। ___ कुछ मीमांसको का कहना है कि - सत्सम्प्रयोगे..... सूत्र में प्रत्यक्षम् पद के बाद 'अनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्' इतना अधिक जुड़ा हुआ है। तात्पर्य यह है कि सूत्रकार अपनी ओर से यहाँ प्रत्यक्ष का लक्षणविधान नहीं करते हैं किन्तु यथा तथा प्रसिद्ध प्रत्यक्ष में यहाँ 'धर्म' के प्रादर्भाव में निमित्तभाव का, यानी धर्म ग्रहण के प्रति निमित्तकारणता का निषेध किया गया है। (क्योंकि प्रत्यक्ष 15 तो वर्तमानग्राही होता है अतः अनागत धर्म उस का विषय ही नहीं है।) - ऐसा कहनेवाले मीमांसकों के प्रति नैयायिक पूछते हैं कि आप कौन से प्रत्यक्ष को धर्मग्रहण का अनिमित्त बता रहे हैं ? Aआपके और हमारे प्रत्यक्ष को या Bयोगिजन के प्रत्यक्ष को ? 1 [धर्मग्रहण का अनिमित्त वह प्रत्यक्ष किस का ? ] यहाँ प्रथम पक्ष माना जाय तो वह अयुक्त है, क्योंकि हमारे-तम्हारे प्रत्यक्ष से धर्मग्रहण नहीं 20 हो सकता यह तो प्रतिवादी को मान्य होने से वादीने नया क्या सिद्ध किया ? दूसरा Bयोगिप्रत्यक्षवाला पक्ष भी अयुक्त है क्योंकि आप (मीमांसक) के पक्ष में जब योगिप्रत्यक्ष ही अमान्य होने से असिद्ध है, असिद्ध पदार्थ को अनिमित्त दर्शाने में कुशलता नहीं होगी, अन्यथा आप को खरशृंग को भी 'अनिमित्त' दर्शाने में आयास करना होगा। यदि कहा जाय :- “हमारे दर्शन में भले ही योगिप्रत्यक्ष असिद्ध है किन्तु परवादी के मत में 25 वह प्रसिद्ध है, अतः उस पर वादी के प्रति उस के अनिमित्तत्व को दर्शाने में अनौचित्य नहीं है।' तो यह भी कथन योग्य नहीं है। कारण, परवादीमान्य योगिप्रत्यक्ष यदि प्रमाणप्रदर्शनपूर्वक माना गया हो तब तो उस के लिये प्रमाणसिद्ध यो० प्र० आप के लिये भी प्रमाणसिद्ध ही रहेगा (प्रमाण पक्षपाती नहीं होता)। जब योगिप्रत्यक्ष आप के मत से भी प्रमाणसिद्ध हो गया तब तो अतीन्द्रियधर्म (के ग्रहण) के प्रति उस को असमर्थ दिखलाना कहाँ तक उचित होगा जब कि अतीन्द्रिय धर्मादि पदार्थ 30 ग्रहण का निमित्त होने के कारणरूप में ही योगिप्रत्यक्ष को प्रमाणसिद्ध माना जाता है। यदि ऐसा कहें कि ‘पर वादीने बिना प्रमाण ही योगिप्रत्यक्ष स्वीकार लिया है,' तब तो वह स्वीकार प्रमाणशून्य होने से अनुचित ही ठहरेगा। तब वैसे अनुचितरूप से स्वीकृत योगिप्रत्यक्ष में अनिमित्तत्व का प्रदर्शन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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