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________________ २५२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ च प्रमाणपदम्। अथ स्वविषये सव्यापारप्रतीततामुपादाय फलस्यैव प्रमाणतोपचारः। उक्तं च, ( ) “सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाणं फलमेव सत्।।” तथा “सव्यापारमिवाभाति व्यापारेण स्वकर्मणि" (प्र०वा०२३०८) इति चेत् ? न, मुख्यसद्भावे उपचार(Is)परिकल्पनात् । बौद्धपक्षे तु न मुख्यं साधकतमत्वं क्वचिदपि सिद्धमिति नोपचारः। अस्मन्मते तु धूमादीनां साधकतमत्वं विशिष्टावगतिहेतुत्वात्, ज्ञानस्य तु न तद् 5 युक्तं तस्य तत्स्वभावत्वात् । अभिमानवशात्तस्य साधकतमत्वे प्रमाण-फलयोर्भेदः प्रसज्यते स च भवतोऽनिष्टः । ___यच्च - 'धूमादिभावेऽपि विषयाधिगतेरभावात् तद्भावे च भावात्' इत्युक्तम्' (पृ.२५१-पं०८) तदसंगतम्; यतो नैव ज्ञानसद्भावे काचित् तज्जन्या विषयाधिगतिः, धूमादिसद्भावे तु तस्याः सद्भावोऽनन्तरमुपलभ्यत एव। अतो धूमाद्येव साधकतमम्, अभिमानस्तु ज्ञानानन्तरमुपजायमानो धूमादिभावेऽप्यनुपजायमानो ज्ञानस्य न साधकतमत्वं प्रकाशयति अपि त्वर्थाधिगमस्वरूपताम् । तथाहि10 के प्रति ‘साधकतम' मानी गयी हो। प्रमाणपद तो कारण (स्वरूप) विशेष, जो ‘साधकतम' होता है उसी का निर्देशक है। प्रतिवादी कहता है – विषयावबोधरूप फल ही उपचार से प्रमाण (या स्व के प्रति साधकतम) कहा जाय तो कोई बाधा नहीं है क्योंकि अर्थज्ञानरूप फल ही अपने विषय में अवबोध के लिये सव्यापार (सक्रिय) बनता है ऐसी प्रतीति उदित होती है। कहा भी गया है – “फल ही सव्यापार 15 प्रतीत होने के कारण 'प्रमाण' कहा जाता है।” तथा प्रमाणवार्तिक में “अपने विषय में (बोधक) व्यापार के जरिये (फल भी) सव्यापार (यानी साधकतम) हो ऐसा प्रतीत होता है।" [२/३०८] वादी कहता है – उपरोक्त कथन भी गैरमुनासीब है, क्योंकि – बौद्धमत में (एक क्षण ही दूसरे क्षण की उत्पादक होने से) 'मुख्य साधकतम' जैसा कुछ भी सिद्ध न होने से औपचारिक की तो बात ही कहाँ ? हमारे मत में तो धूमादि भी विशिष्टावबोध का हेतु होने से वही मुख्य साधकतम 20 है। अर्थज्ञान तो स्वयं विशिष्टावबोधस्वभावी होने से अपने स्वरूप के प्रति ‘साधकतम' नहीं माना जा सकता। फिर भी ‘अर्थज्ञान से मैंने विषय को ज्ञात किया' ऐसे अभिमान के बल पर अर्थज्ञान को साधकतम मानेंगे तो उन दोनों में भेद मानना पडेगा क्योंकि प्रमाण तो साधकतम है और फल तो उस का कार्य होता है। उन का भेद आप को कहाँ इष्ट है ? [ धूमादि में साधकतमत्व के निषेध का निरसन ] 25 यह जो आपने कहा कि (पृ०२५१-पं०२८) - 'धूमादि के रहने पर भी विषयावबोध नहीं होता जब कि (अर्थज्ञान के रहने पर) प्रत्येक धूमादि न हो तब भी विषयावबोध होता है' - वह भी असंगत है। कारण, ज्ञान रहे या न रहे - ज्ञान के बाद कोई ज्ञानजन्य पृथक् विषयावबोध ज्ञात नहीं होता। किन्तु, धूमादि के होने पर अनन्तर पल में ही विषयाधिगति का उपलम्भ होता ही है - इस लिये धूमादि ही विषयावबोध का साधकतम मानना चाहिये। आप के मतानुसार 'विषयाधिगति 30 का विश्वास (अभिमान) अर्थज्ञान के बाद होता है धूमादि के रहने पर भी नहीं होता है' - इतना कह देने मात्र से ज्ञान में साधकतमत्व सिद्ध नहीं होता, उलटा उस से तो यह सिद्ध होता है कि A. तदभावेऽपि - इति भवितव्यम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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