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खण्ड - ४, गाथा - १
अर्थाधिगतावर्थोऽधिगत इत्यभिमानः प्रभवति न तु धूमादिभावे । अतो विषयाधिगत्यभिमानस्यानेन प्रकारेण भावाद् न तदवगतौ साधकतमत्वं ज्ञानस्य इति निर्णयेऽध्यक्षताप्रसक्तिप्रेरणा तदवस्थैव ।
किञ्च, सुप्तावस्थोत्तरकालं घटादिज्ञानोत्पत्तौ यद्यबोधरूपं तज्जनकं प्रमाणं नेष्यते तदा प्रागपरज्ञानस्याभावात् कस्य तत् फलं भवेत् ? 'घटत्वसामान्यज्ञानस्य घटज्ञानं फलम्' इति चेत् ? ननु घटत्वज्ञाने किं प्रमाणम् ? 'तदेव' इति चेत् ? एकस्य प्रमाणफलताप्रसक्ति: । 'अभ्युपगम्यत एव' इति 5 चेत् ? न, विशेष्यज्ञानेऽपि तत्प्रसङ्गात् । न च विशेष्यज्ञानोत्पत्तौ विशेषणज्ञानस्य प्रमाणत्वं दृष्टमिति ततस्तद्भिन्नमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यम्; इन्द्रियार्थसंनिकर्षानन्तरं घटत्वादिसामान्यज्ञानस्य दर्शनात् तत्र वह ज्ञान ही विषयावबोधस्वरूप है ( - जो धूमादि से उत्पन्न हुआ है ) । देख लो अर्थ का अवबोध होने पर ही उस के साथ उस के मिलितरूप में 'अर्थ ज्ञात हुआ' ऐसा विश्वास भी जाग्रत् होता है चाहे वहाँ धूमादि हो या न हो । अतः इस प्रकार से विषयावबोध का विश्वास जाग्रत् होने की 10 घटना से सिद्ध होता है कि ज्ञान उस का साधकतम नहीं किन्तु तत्स्वरूप है ।
इस चर्चा का सार यह हुआ कि निर्णय वास्तव में प्रत्यक्ष प्रमाण का जनक नहीं है। किन्तु प्रत्यक्ष के सूत्रोक्त लक्षण इन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वादि उस में समाविष्ट होने से उस में प्रत्यक्षलक्षण की अतिव्याप्ति तदवस्थ रहेगी ।
[ अज्ञानमय संनिकर्ष भी प्रमाण कैसे ? ]
यह सोचिये यदि आप को अज्ञानस्वरूप पदार्थ विषयावबोधजनक हो कर 'प्रमाण' पदवी प्राप्त करे यह अमान्य है तो सो कर ऊठने के समय जो घटादिज्ञान प्रथम उत्पन्न होगा उस के प्रति किस ज्ञान को प्रमाण मानेंगे ? उसके पूर्व में सुप्तावस्था में ज्ञान तो कुछ भी नहीं होता, तो यह घटज्ञान किस का फल बनेगा ? यदि कहें 'घटज्ञान के पहले घटत्व सामान्य (विशेषण) का ज्ञान अवश्य होगा, उस को प्रमाण और घटज्ञान (विशिष्ट ज्ञान ) को फल मानेंगे।' तो यहाँ प्रश्न 20 है कि घटज्ञान के पहले घटत्व का ज्ञान होने में क्या प्रमाण है ? 'वह स्वयं ही प्रमाण है' ऐसा कहना गलत है क्योंकि तब तो एक ही घटत्व ज्ञान प्रमाण और खुद का फल भी मानना पडेगा । यदि कहें 'कोई आपत्ति नहीं है, वैसा मान लेंगे।' तो यह भी गलत है क्योंकि ऐसे तो एक ही विशेष्यज्ञान (घटज्ञान) को भी प्रमाण और फल द्वयात्मक मानना पडेगा । यदि कहें कि 'दृष्ट नियम ऐसा है कि विशेषणज्ञान विशेष्यज्ञानोत्पत्ति में कारण होने से प्रमाण (यानी प्रमाजनक ) होता 25 है, इस लिये वहाँ एक को द्वयात्मक न मान कर प्रमाण (विशेषणज्ञान) और फल ( विशेष्यज्ञान ) को अलग मानना होगा ।' तो ऐसा कथन अयुक्त है क्योंकि तब एक घटत्वज्ञान को प्रमाण- फल उभयरूप कहना गलत ठहरेगा क्योंकि वहाँ भी दृष्ट है कि घटत्व का ज्ञान इन्द्रियार्थसंनिकर्ष के उत्तरक्षण में उत्पन्न होता है अत एव उस के प्रति जड भी संनिकर्ष का प्रामाण्य बलात् आप को मानना पडेगा ।
कर घटत्वज्ञान को ही उभयरूप 30 क्योंकि वह ज्ञानरूप है' (मतलब,
'वह अज्ञानरूप (जड) है' इस लिये वहाँ संनिकर्ष को प्रमाण न मान मानेंगे' तो 'विशेष्यज्ञान की उत्पत्ति में विशेषणज्ञान प्रमाण नहीं है यदि आप संनिकर्ष को अज्ञान रूप होने से अप्रमाण करार देंगे तो अन्य कोई वादी ज्ञानरूप होने के हेतु से विशेषण ज्ञान को (विशेष्यज्ञानत्व व्यधिकरणधर्मरूपेण) अप्रमाण करार देगा ।) ऐसा कोई
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