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________________ २५१ खण्ड-४, गाथा-१ निर्णये सति योऽयं विषयाधिगत्यभिमानः स किं साधकतमत्वान्निर्णयस्य उत विषयाधिगतिस्वभावत्वादिति संदेहः, विशेषहेत्वभावात् साधकतमत्वे च सिद्ध तत्प्रामाण्यावगतिः। अथ 'विषयाधिगतिस्वभावत्वेनैव निर्णयस्य विषयगत्यभिमानो न साधकतमत्वेनेति भवतोऽपि विशेषहेत्वभावः।' न, अबोधस्वभावानामप्यर्थोपलम्भनिमित्तानां भावे विषयाधिगतिसिद्धेः। तथा च 'धूमाज ज्ञातोऽग्निः' इति व्यपदिशंल्लोक: उपलभ्यते नाग्निज्ञानादिति । एवं चक्षुषः प्रदीपादेश्चान्धकारे विषयाधिगतिनिमित्तताव्यपदेशो लोकप्रसिद्ध इति 5 परिच्छेदेऽबोधस्वभावस्य तज्जनकस्य साधकतमत्वाद् नार्थज्ञानस्य प्रमाणता। अथापि स्यात् - 'साधकतमज्ञानजनकत्वेनापि धूमादीनां तथाव्यपदेश: संभवीति न तेषां ततः साधकतमत्वसिद्धिः। तथा च धूमसद्भावेऽपि विषयाधिगतिरित्यभिमानाभावात्, सति त्वर्थज्ञाने प्रत्येकशस्तेषामभावेऽपि भावाद् विषयाधिगत्यभिमाने अनन्तरवृत्तमर्थज्ञानमेव साधकतमम्।' न, (न हि) विषयाधिगतौ ज्ञानस्य साधकतमता, विषयाधिगतिस्वरूपत्वात् तस्य । न च किञ्चिद्वस्तु स्वरूपे साधकतमम्, तद्विशेषाभिधानं 10 स्वभावता के कारण ? इस संदेह के समक्ष आपको बताना पडेगा कि - 'तथाविध विश्वास के प्रति और कोई विशेष हेतु न होने से निर्णय में ही साधकतमत्व सिद्ध होने से उस में प्रामाण्य सिद्ध है। यदि निर्णय प्रामाण्यवादी इस के विरुद्ध यह कहेगा कि आप को भी विषयावबोधविश्वास अपनी विषयाधिगतिस्वभावता के जरिये ही होता है, और कोई विशेष हेतु मौजुद नहीं है। मतलब कि आप को भी (वादी को) इस ढंग से विशेषहेतुअभाव का ही आशरा लेना पडेगा। तो उसके निषेध में 15 वादी कहता है कि हमें विशेषहेतुअभाव का आशरा लेना नहीं पड़ता क्योंकि जडस्वभावी अर्थोपलब्धिहेत संनिकर्षादि विशेष हेतु के रहने पर विषयावबोध हो सकता है। देखिये - लोक में भी अग्नि के ज्ञान से नहीं किन्तु 'धूम से हमने अग्नि (रूप विषय) का अवबोध किया ऐसा व्यवहार चलता है। तथा, कहीं पर घनिष्ठ अन्धकार के रहते हुये विषय के ज्ञान से विषयावबोध नहीं होता किन्तु लोक में प्रसिद्ध है कि नेत्र और प्रदीपादि निमित्तों से ही अन्धकार में विषयावगम होता है। इस 20 प्रकार यह निष्कर्ष सिद्ध होता है कि जडस्वभावी कारणों की साधकतमता के जरिये परिच्छेद (विषयबोध) होता है न कि अर्थज्ञान से। मतलब, निर्णय साधकतम न होने से प्रमाण नहीं है, फिर भी स्वरूपविशेषण पक्ष में अकारकभूत निर्णय में लक्षण का समावेश होने से अतिव्याप्ति दुर्निवार रहेगी। [ धूमादि के साधकतमत्व पर आक्षेप का प्रतिकार ] __ यदि ज्ञानप्रमाणवादी की ओर से कहा जाय - धूमादि स्वतः साधकतम नहीं, किन्तु साधकतमज्ञान 25 (अर्थज्ञान) का जनक होने से उसे 'साधकतम' शब्द से व्यपदिष्ट किया जाता है यानी उपचार से। वास्तव में धूमादि का शब्दव्यवहारमात्र के आधार पर साधकतमत्व सिद्ध नहीं है। फलितार्थ यह है कि धूम के रहने पर भी 'मैंने विषय ज्ञात किया' ऐसा विश्वास नहीं होता किन्तु अर्थज्ञान की उपस्थिति में धूमादि एक एक के न होने पर भी वह विश्वास प्रगट होता है, इस से सिद्ध होता है कि विषयावबोध के विश्वास में उस के अनन्तरपूर्वकालीन अर्थज्ञान ही साधकतम होता है। 30 ___ इस के विरुद्ध वादी कहता है – अर्थज्ञान स्वयं ही विषयावबोधस्वरूप होने से वह (अर्थज्ञान) विषयावबोध के प्रति साधकतम नहीं माना जा सकता। ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो अपने स्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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