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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ प्रत्यक्षवादिनां चात्मनो विशेषणत्वेन विशिष्टप्रतीतिजनकत्वेन प्रत्यक्षत्वात् । न च तयोः सूत्रोपात्तविशेषणयोगिता संदिग्धविपर्ययस्वभावत्वात्।
अतिव्याप्तिरपि, यदेन्द्रियार्थसंनिकर्षाद् लिङ्गाद् गतिमदिन्द्रियं प्रतिपद्यते तदा सकलसूत्रोपात्तविशेषणयोगात् संनिकर्षलक्षणलिङ्गालम्बनस्य ज्ञानस्य तथाविधफलजनकस्य प्रत्यक्षताप्रसंगात्। एतच्च ‘इन्द्रियस्यार्थः' इति समासाश्रयणे दूषणं द्रष्टव्यम्। इति स्वरूपविशेषणपक्षे अनेकदोषापत्तिः। ____ अथ 'ज्ञानप्रामाण्यवादिभिर्निर्णयस्य प्रामाण्यमिष्यत एवेति नानिष्टप्रेरणावकाशः । तथाहि- तत्सद्भावे विषयाधिगतिरिति लोकस्याभिमानः, यच्च तथाविधविषयाधिगमे करणं तत् प्रमाणम्। निर्णये च सति तदधिगतिरिति स एव प्रमाणम् अत एव नाऽश्रुतसूत्रान्तरकल्पनादोषानुषङ्गोपि।' नैतत् सारम्; यतो
में हेतु होने से, वह भी ‘प्रत्यक्ष (करण) प्रमाण' गिना जाता है। किन्तु इन दोनों में (संशय-विपर्यय 10 में) व्यवसायात्मकतादि सूत्रोक्त विशेषण संगत नहीं होता क्योंकि एक संदेहात्मक है तो दूसरा विपर्ययरूप है। फलतः सूत्रोक्त लक्षण इन लक्ष्यों में न घटने से अव्याप्ति दोष अटल रहेगा।
[ इन्द्रियगति के अनुमान में प्रत्यक्षत्वापत्तिः ] अब देखिये कि प्रत्यक्षलक्षण के विशेषणों को स्वरूपविशेषण मानने पर अतिव्याप्ति दोष भी अनिवार्य होगा। कोई प्रमाता इन्द्रिय की गतिमत्ता का अनुमान करता है, चक्षु इन्द्रिय का दूरवर्तिविषय 15 के साथ संनिकर्ष इन्द्रिय की गतिमत्ता के विना घट नहीं सकता। यहाँ जो परामर्शज्ञान है उस में
प्रत्यक्षता की अतिव्याप्ति होगी। कारण, सूत्रोक्त सभी विशेषण इन्द्रियसंनिकर्षात्मक लिंग के ज्ञान में (परामर्श में) घट जाते हैं। अतः गतिमत्ता की अनुमिति के जनक संनिकर्षात्मकलिंगविषयक परामर्शरूप ज्ञान में प्रत्यक्षत्व की अतिव्याप्ति आयेगी। इतना यहाँ ख्याल में रखना कि यहाँ 'इन्द्रियार्थसंनिकर्ष'
पद में ‘इन्द्रिय का (ग्राह्य) अर्थ' इस प्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास का आधार लेने पर ही अतिव्याप्ति 20 का दोष लग सकता है। इस प्रकार स्वरूपविशेषण पक्ष में अव्याप्ति-अतिव्याप्तिरूप अनेक उक्त दोषों को अवकाश है।
[ अकारकभूत निर्णय में अतिव्याप्ति वारण/आपादन ] स्वरूपविशेषण पक्ष के विरोध में पहले (पृ०२४६-पं०१२) जो कहा गया है कि पूर्वोक्त विशेषणविशिष्ट प्रत्यक्ष निर्णय में प्रत्यक्षत्व की अतिव्याप्ति होगी - उस के सामने प्रतिवादी कहता है - “ज्ञान प्रामाण्य 25 को माननेवाले निर्णय को भी प्रमाण ही मानते हैं, अत एव पूर्वोक्त अतिव्याप्ति आदि दूषणजाल निरवकाश
है। देखिये - लोगों को ऐसा विश्वास होता है निर्णय के होने पर विषयों का अवगम होता है। वैसी दशा में तथाप्रकार के विषयों के अवगम के प्रति वह निर्णय 'करण' होने से प्रमाण क्यों नहीं होगा ?! निर्णय के रहने पर ही विषयावबोध होता है इस लिये निर्णय प्रमाण ही है। अत एव
पने जो 'अश्रत सत्रों की कल्पना के दोषों का कलंक दिखाया था वह निरर्थक है।" - 30 यह प्रलाप असार है। आपने जो कहा कि निर्णय के रहते हुए विषय के अवगम का विश्वास
है उस पर प्रश्न उठेगा कि वह विश्वास निर्णय की साधकतमता के जरिये होता है या अपनी विषयावबोध
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