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खण्ड-४, गाथा-१
२४९ सूत्रस्य चार्थः- यथा(?दा) सुवर्णादि परिच्छिद्यते तदा तुला प्रमाणम् प्रमाणं चागमानुमानपूर्वकम् दशपलादिज्ञानस्यानिन्द्रियार्थसंनिकर्षपूर्वकत्वात् तदभावश्च वस्त्रादिव्यवहितेऽपि भावात्। तथा प्रमेयं च यदा सुवर्णादिना तुलान्तरमितेनानुमीयते तदा सुवर्णादिद्रव्यं प्रत्यक्ष प्रमाणम् इन्द्रियार्थसंनिकर्षजज्ञानजनकत्वात् । इन्द्रियार्थसंनिकर्षजं च पञ्चपलरेखादिज्ञानं तद्भावभावित्वात्। अत इन्द्रियादिसहकारि तत् सुवर्णादि पञ्चपलरेखादिज्ञानमुत्पादयत् प्रत्यक्ष प्रमाणम्। सुवर्णवदिन्द्रियार्थजज्ञानमुत्पादयन्तः सर्व एव भावा: 5 प्रत्यक्षप्रमाणतामाबिभ्रति। ___ स्मृति-संशय-विपर्ययादीनां चेन्द्रियार्थसंनिकर्षेण सह व्यापारे विशिष्टफलजनकत्वेन प्रत्यक्षतोपेयते । तथाहि- संशय-विपर्ययोरपि बाह्ये विषये स्वावलम्बने स्वावच्छेदकत्वेनेन्द्रियार्थसंनिकर्षेण सह व्यापारादात्मइस ढंग से है - सुवर्णादि का दश पलादिभार (गुरुत्व) का ज्ञान इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से तो नहीं हो सकता, किन्तु तुला के अवनमनरूप लिंग के द्वारा तथा 'इतना अवनमन होने पर इतना पल' इस 10 प्रकार का संकेत रेखा यानी आगम के द्वारा होता है - इस ज्ञान में करणरूप से तुला को 'प्रमाण' माना जाता है। गुरुत्व का ज्ञान इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से नहीं होता इस का सबूत यह है कि सुवर्णादि वस्त्रादि से आवृत कर के तुला जाय तो भी गुरुत्व का ज्ञान होता है। तथा कभी तुला भी प्रमेयःजब नयी तुला के निर्माण हेतु पंचपलभारवाले निश्चित सुवर्णादि द्रव्य के द्वारा नूतन तुला पर पंचपलादि रेखाओं को अंकित किया तब वह सुवर्णादि द्रव्य भी प्रत्यक्षप्रमाणरूप है, क्योंकि इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य 15 ज्ञान का वह जनक है। कैसे ? यह देखिये - उस वक्त जो पंचपलादि दिखानेवाली तुला पर अंकित रेखा है उस का ज्ञान तो इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से ही होता है, उस के अभाव में नहीं होता। इस ज्ञान में सुवर्णादि भी इन्द्रिय आदि का सहकारी बनता है, पंचपलसूचक रेखा के ज्ञान को वह उत्पन्न करता है, इस तरह सुवर्णादि खुद प्रत्यक्ष का कारण होने से प्रमाण है। सुवर्णादि की तरह जो कोई भी पदार्थ इन्द्रियादि का सहकारी बन कर इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य ज्ञान का निमित्त बनता है उन सभी 20 को ‘प्रत्यक्ष प्रमाण' का बिरुद घट सकता है।
ओर जब इन्द्रियार्थ संनिकर्ष के साथ प्रत्यक्ष का व्यापार चल रहा हो तब दूसरी ओर पूर्वानुभवजन्य स्मृति या संशय किंवा विपर्यय (भ्रम) आदि का संनिधान रह जाने पर विशिष्ट प्रकार का प्रत्यक्षात्मक फल (विजातीय ज्ञानरूपप्रत्यक्ष फल) उत्पन्न होता है। वहाँ उन स्मृति आदि को भी 'प्रत्यक्ष' प्रमाण की संज्ञा दी जा सकती है। 'सुरभि चन्दन' इस अनुभव में चन्दन के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष 25 के काल में सौरभ की स्मृति भी संनिहित रहती है, वे दोनों मिलकर उस प्रत्यक्ष को उत्पन्न करते हैं अतः स्मृति भी प्रत्यक्ष (यानी प्रत्यक्षकरण) बन जाने से 'प्रमाण' है। इसी तरह अपने आलम्बन भूत बाह्यविषय के अपने अवच्छेदकरूप के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष का योग रहते हुए उस के साथ संशय एवं विपर्यय का भी व्यापार जुट जाता है; तब जो प्रत्यक्ष फल होगा उस में संशय और विपर्यय भी करण होने से प्रत्यक्ष प्रमाण बिरुद प्राप्त करता है। जो विद्वान आत्मा के प्रत्यक्ष को स्वीकारते 30 हैं उन के मत में आत्मा भी स्वप्रत्यक्ष की अपने विशेषण के रूप में विशिष्टप्रतीति उत्पन्न करने
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