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________________ २४५ खण्ड-४, गाथा-१ ज्ञानपदोपादानस्य दर्शितत्वात् (पृ०२३३-पं.१)। व्यवसायात्मकग्रहणं तु धर्मनिर्देशार्थमिति न पुनरुक्तम् । ननु फल-स्वरूप-सामग्रीविशेषणत्वेनाऽसंभवान्नेदं लक्षणम् । तथाहि- प्रत्यक्षफलविशेषणत्वे इन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वादिषु ज्ञान-प्रत्यक्षशब्दयोः सामानाधिकरण्यानुपपत्तिः फलप्रमाणाभिधायकत्वेन। ज्ञानं हि फलम्, प्रत्यक्षं तत्साधकतमत्वात् प्रमाणमिति कथं तयोः सामानाधिकरण्यम् ? न चैवंभूतं फलं यतः तत् प्रत्यक्षम्, 'यतः' इत्यस्याऽश्रुतत्वात्। तन्न Aफलविशेषणपक्षः। 5 ___ अथैतहौषपरिजिहीर्षया Bस्वरूपविशेषणपक्षः समाश्रीयते सोऽप्ययुक्तः, एतद्विशेषणविशिष्टस्य प्रत्यक्षनिर्णयस्याऽकारकस्य प्रत्यक्षत्वप्रसक्तेः । न चाऽकारकस्याऽसाधकतमत्वात् प्रत्यक्षत्वं युक्तम् । अथ कारकत्वं विद्वान् कहते हैं कि शाब्दबोध में वाच्यार्थ का (वास्तव अर्थ का) प्रतिभास जरूर होता है किन्तु वह शब्दानुविद्धरूप से होता है। कुछ विद्वान कहते हैं कि दोनों में विषयभेद न रहने पर भी अपने अपने कारण पृथक् होने से (एक में इन्द्रिय, दूसरे में शब्द) प्रतिभास का भेद सावकाश है। 10 ____ निष्कर्ष, “व्यवसायात्मक ज्ञान इन्द्रिय एवं अर्थ से उत्पन्न नहीं होता क्योंकि वह विकल्परूप है" यह बौद्धमत युक्तिसंगत नहीं है। यदि कहें कि – “नैयायिक के प्रत्यक्षलक्षण में 'व्यवसाय' पद से ही प्रत्यक्ष की ज्ञानरूपता का निरूपण हो जाने से, लक्षण में 'ज्ञान' पद का समावेश व्यर्थ है" - तो यह कथन असार है क्योंकि लक्षण के निरूपण में धर्मि-पदार्थ का निर्देश करने के लिये 'ज्ञान' पद का प्रयोग सार्थक है यह पहले कह आये हैं (पृ०२३३-५०११)। लक्षण में जो 'व्यवसायात्मकं' 15 ऐसा कहा है वह लक्षणरूप धर्म का निर्देश करने हेतु होने से, व्यवसाय' एवं 'ज्ञान' दो पदों के प्रयोग में कोई पुनरुक्ति का दोष नहीं है। [प्रत्यक्षलक्षण के ज्ञानपदार्थ में फलादि विशेषण तीन पक्ष ] ___ कुछ विद्वानों का अभिप्राय ऐसा है - न्यायसूत्र के प्रत्यक्ष के लक्षण में जितने पद हैं वे न तो Aफल के विशेषण हो सकते हैं, न तो Bस्वरूप के, न सामग्री के विशेषण हो सकते हैं। तीन 20 पक्षों में से एक भी प्रकार संगत न होने से यह लक्षण युक्त नहीं है। प्रथमपक्षे :- इन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्व आदि को प्रत्यक्ष के फल (ज्ञान) का विशेषण मानेंगे तो, 'ज्ञान' शब्द फल का और ‘प्रत्यक्ष' शब्द प्रमाण (प्रमितिकरण) का वाचक होने से उन दोनों में सामानाधिकरण्य (विशेषण-विशेष्य रूप से मिल कर एक अर्थ का बोधकत्व) की संगति नहीं हो सकेगी। स्पष्टता :- Aलक्षण में गृहीत इन्द्रियसंनिकर्षजन्यत्वादिलक्षण के निर्देश में ज्ञानशब्द और प्रत्यक्षशब्द 25 का सामानाधिकरण्य यानी विशेषण-विशेष्य भाव संगत नहीं होगा, क्योंकि ज्ञान तो स्वयं इन्द्रियसंनिकर्षादि का फल है और प्रत्यक्ष तो उस से अभिन्न नहीं है किन्तु उस का साधकतम होने से प्रमाण (= प्रमाकरण) है, इन दोनों का सामानाधिकरण्य कैसे हो सकता है ? यदि ‘यतः' पद ऊपर से जोड कर ऐसा भाव निकाला जाय कि “तथाविध ज्ञान रूप फल जिस से (= यतः) प्राप्त होता है वह A. न्यायमञ्जरीग्रन्थे द्वितीयानिके चर्चेयमवधारणीया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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