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________________ २४४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स्वरूपशक्तिः भवति तदा कार्यमाविर्भावयत्येव । न च स्वरूपशक्तेः सहकारिशक्त्या व्यतिरिक्तोऽव्यतिरितो वा कश्चिदुपकारः क्रियते किन्तु संभूय ताभ्यामेकं कार्यं निष्पाद्यते। तथाहि- अन्त्यावस्थाप्राप्तक्षणवत् सहकर्तृत्वमेव सर्वत्र सहकारार्थो, नत्वतिशयाधानमिति क्षणभङ्गभङ्गे विस्तरेण प्रतिपादयिष्यते। यदपि 'विशेषणं विशेष्यं च' इत्यादि (पृ.२३६-६.३) दूषणमभिहितम्, तथा 'संकेतस्मरणोपायम्' 5 इत्यादि च, (पृ.२३६-पं०४) तदपि प्रागेव निरस्तम् । यदपि 'विकल्पाध्यक्षयोरेकविषयत्वे प्रतिभासभेदो न स्यात् दृश्यते च, तदुक्तम् ‘शब्देनाऽव्यापृताक्षस्य' इत्यादि' (पृ.२३६-५०९) - तदप्यसङ्गतम्; शब्दाक्षप्रभवप्रतिपत्त्योर्विषयभेदस्य प्रसाधितत्वात्। शब्दजप्रतिपत्तौ शब्दावच्छेदेन वाच्यस्य कैश्चित् प्रतिभासोपगमात्, कारणभेदादेकविषयत्वेऽपि प्रतिभासभेदस्य च कैश्चिदभ्युपगमाद् नैकान्तेन तयोभिन्नविषयता। तन्न व्यवसायात्मकं विकल्परूपत्वादनक्षार्थजम् । 'व्यवसायस्य ज्ञानरूपत्वाद् ज्ञानग्रहणं न कार्यम्' इति चेत् ? न, धर्मिनिर्देशार्थं स्पष्टता :- सहकार का अर्थ यह नहीं है कि क्षण किसी न किसी अतिशय को अपने साथीदार में पैदा करे। जैसे अन्त्य अवस्था में अन्तिम क्षण नये किसी क्षण को जन्म नहीं देती (बौद्ध के मत से दीपकादि की अन्तिम क्षण नये दीपक क्षण को जन्म दिये बिना ही बुझ जाती है, हाँ इन्द्रियादि के साथ मिल कर वह किसी आदमी को प्रत्यक्ष करा सकती है - इस तरह वह सहकारी बनती है, किसी अन्य को जन्म न देने पर भी) इसी तरह दण्ड-चक्रादि भी परस्पर मिल कर घटादि निपजाते 15 हैं। तात्पर्य, परस्पर मिलकर कार्यकर्तृत्व यानी सहकर्तृत्व यही 'सहकार' है, न कि अतिशय का आधान यानी उत्पादन। क्षणिकवाद के प्रतिकार में आगे इस विषय पर अधिक चर्चा करेंगे। [एक विषयता और प्रतिभासभेद की विकल्प में उपपत्ति ] यह जो प्रमाणवार्त्तिककार ने कहा था (पृ०२३६-पं०१६) – “पहले विशेषण, बाद में विशेष्य, फिर संसर्ग एवं लौकिक स्थिति - इन का संकलन कर के ही विकल्प प्रतीति होती है, अन्यथा 20 नहीं।” तथा यह भी जो उस में कहा गया था (पृ०२३६-पं०१८) – “चाक्षुष तो पूर्वापरसंकलनरहित होता है, उस में ऐसी प्रतीति को अवकाश ही कहाँ जो संकेतस्मरण द्वारा पूर्वदृष्ट का संकलन करे ?" इत्यादि...इसका भी पहले निरसन हो गया है। (पहले जो (पृ०२३८-पं०२२) सौगत के खंडन में नैयायिक ने विकल्प के बारे में चार पक्ष ऊठा कर ऊहापोह किया है उस में विशेषणविशिष्टार्थग्राहित्वं इस तीसरे विकल्प की चर्चा में निरसन को देख सकते हैं।) 25 यह जो पहले कहा था विकल्प और अध्यक्ष यदि एक विषयक मानेंगे तो प्रतिभासभेद नहीं होना चाहिये किन्तु वह दिखता है। कहा भी गया था (पृ.२३६-पं०२८) – “नेत्र के प्रयोग विना, शाब्दबुद्धि में दर्शन की तरह प्रतिभास नहीं होता इस लिये दर्शन तो शब्द से अनालिङ्गित अर्थ का वेदक होता है” इत्यादि. वह सब असंगत है क्योंकि शाब्दबोध एवं इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में विषयभेद रहता है इस तथ्य का युक्तियुक्त प्रतिपादन पहले किया जा चुका है। दूसरी बात यह है कि कुछ 30 विद्वानों के मतानुसार शाब्दबोध एवं प्रत्यक्ष में सर्वथा एकान्ततः विषयभेद नहीं माना जाता। कुछ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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