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खण्ड-४, गाथा-१
२४३ निर्विकल्पोत्पादकं चक्षुरादिकमन्यनिरपेक्षमेव स्वकार्यनिर्वर्तकमन्यसंनिधिस्तु तत्र स्ववहेतुनिबन्धनो नोपालम्भविषय' इति वक्तव्यम् “न वै किञ्चिदेकं जनकम्” (प्र॰खण्डे पृ०५०-६०८) इत्यादेविरोधप्रसक्तेः । अतश्चक्षुरादिवद् न स्मृत्याऽर्थस्य व्यवधानम्। न च क्षणिकत्वात् स्मृतिकाले अर्थस्यातीतत्वात् तया तस्य व्यवधानम्, क्षणिकत्वस्यास्मान् प्रत्यसिद्धत्वात्, स्फटिकसूत्रे (न्या द ३-२-१०) निराकरिष्यमाणत्वाच्च।
__ यदपि अर्थस्य स्मृतिसापेक्षत्वे दूषणमभ्यधायि- 'यः प्रागजनक' (२३५-११) इत्यादि, तदप्यसङ्गतम्, 5 उपयोगाऽविशेषस्याऽसिद्धत्वात् । तथाहि- भावानां द्विविधा शक्ति:- प्रतिनियतकार्यजनने एका स्वरूपशक्तिः अपरा सहकारिस्वभावा। तत्र प्राक् स्मरणात् स्वरूपशक्ति: न कार्यं जनयति, यदा तु समासादितसहकारिशक्तिः इत्यादि..... वैसा वास्तव में नहीं है। निर्विकल्प की उत्पत्ति के अव्यवहित पूर्व क्षण में जो चक्षु आदि कारण होते हैं वे परस्पर सापेक्ष नहीं रहते फिर भी उस के अव्यवहित अन्त्यक्षण में परस्पर संनिधान के रहते हुए वे सब एक ऐसी विशिष्ट अवस्था में पहुंच जाते हैं जो कार्य उत्पन्न किये बिना नहीं 10 रह सकते। यहाँ उन कारणों का जो संनिधान है वह परस्पर निरपेक्ष होने पर भी यकायक कैसे हो गया ऐसे प्रश्न को अवकाश नहीं है क्योंकि अपने अपने पर्वक्षणवर्ती कारण के प्रभाव से वे तथाविध अवस्था में पहुँच सकते हैं। मतलब परस्परसापेक्ष कारणसामग्री का पक्ष हम नहीं स्वीकारते ।” ___- तो यह कथन अयोग्य है क्योंकि “कार्य का कोई एक ही उत्पादक नहीं होता (किन्तु सामग्री कार्यजनक होती है)” इस सर्वसम्मत तथ्य से आप का विरोध प्रसक्त होगा। फलितार्थ यह है कि 15 जैसे निर्विकल्प में परस्पर का व्यवधान बाधक नहीं है वैसे ही सविकल्प में भी स्मृति का व्यवधान बाधक नहीं। यदि कहें कि - ‘अर्थ तो क्षणिक होता है अतः स्मृति संनिधान काल में उस का संनिधान न रहने से स्मृति का व्यवधान बाधक बनेगा।' - तो क्षणिकवाद न मानने वाले हम नैयायिकों के प्रति आप का कथन अकिंचित्कर है। ‘स्फटिकेऽप्यपरापरोत्पत्तेः क्षणिकत्वाद् व्यक्तीनामहेतुः” (न्यायद०३२-१०) में इस क्षणिकवाद का निरसन नैयायिकों ने किया ही है।
[द्विविध भावशक्ति के द्वारा अनुपयुक्तता का समाधान ] अपने प्रत्यक्ष होने में अर्थ स्मृतिसापेक्ष हे - इस तथ्य के विरुद्ध आपने जो कहा था (२३५३१) – “पहले जो (स्मृति के विना) अजनक है वह बाद में भी जनक नहीं हो सकेगा क्योंकि तभी भी वह अनुपयुक्त से भिन्न नहीं है... इत्यादि" - वह भी असंगत है चूँकि बाद में (स्मति के होने पर) भी वह अनुपयुक्त से अभिन्न होने की बात असिद्ध है। ऐसा समज लो कि - हर 25 पदार्थों में दो प्रकार की शक्ति होती है। नियत स्वरूपवाले कार्य को उत्पन्न करने की योग्यतारूप एक है स्वरूपशक्ति। दूसरी है - सहकारिस्वभावा । (यानी सहकारी के साथ रह कर कार्योत्पत्ति करना ।) स्थिति ऐसी है कि स्मृति के पूर्व स्वरूपशक्ति (योग्यता) के रहने पर भी कारण कार्योत्पत्ति नहीं करता । फिर जब सहकारि उपस्थित होता है तब सहकारिशक्ति में रूपान्तरित हो कर स्वरूपशक्ति कार्य को निपजाती है। इसका मतलब ऐसा नहीं समझना कि 'सहकारिशक्ति प्रगट हो कर स्वरूपशक्ति के ऊपर 30 उस से भिन्न अथवा अभिन्न कोई उपकार करती है (इसलिये कार्योत्पत्ति होती है)' किन्तु यहाँ सहकारि जब उपस्थित होता है तब अन्योन्य मिल कर एक कार्य को निपजाते हैं इतना ही भावार्थ है।
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