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________________ २४२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ भ्रान्ति-संवृति-संज्ञानमनुमानानुमानिकम्। स्मार्त्ताभिलाषिकं चेति प्रत्यक्षाभं समिरम्।। ( ) इत्यत्र ‘स्मार्ताभिलाषिकं चेति' 'इति' शब्दपरिसमापिताद् विकल्पवर्गात् पृथक् ‘सतैमिरम्' इत्यनेनाविकल्पस्यैवंजातीयकस्य प्रत्यक्षाभासत्वं प्रतिपादितम् । कल्पनात्वे वाऽस्याऽभ्रान्तपदोपादानमेतद्व्यवच्छेदार्थं प्रत्यक्षलक्षणे न युक्तियुक्तं स्यात् । तद् न चतुर्थपक्षाभ्युपगमोऽपि न्यायोपपन्न इति नार्थसामर्थ्यानुद्भूतत्वादप्रत्यक्षता विकल्पानाम्। यच्च ‘अर्थोपयोगेऽपि' (पृ०२३५-५०५) इत्यादिदूषणमक्षजत्वे तेषां प्रतिपादितम् तदप्यसंगतम् । यतो यथा निर्विकल्पोत्पादकसामग्र्यन्तभूताश्चक्षुरादयः सहकारिणोऽन्योन्यसव्यपेक्षा अपि कार्योत्पादनेनैव परस्परतो व्यवधीयन्ते- तज्जननस्वभावत्वात् तेषाम् - तथा सविकल्पोत्पादका अपि । न च 'अन्त्यावस्थाप्राप्तं इस श्लोक में भ्रान्ति से ले कर स्मृति और इच्छाप्रेरित ज्ञान तक विकल्पज्ञानों के वर्ग का 10 निरूपण समाप्त कर के, उन से पृथक् ही 'सतैमिर' पद से निर्विकल्प तथाप्रकार के (तिमिरदोषजन्य) ज्ञान को भी प्रत्यक्षाभास कहा गया है। (तात्पर्य, निर्विकल्प भी सब प्रमाणभूत नहीं होता ।) यदि बौद्ध कहेगा कि यह ज्ञान तो कल्पनारूप ही है - तो फिर प्रत्यक्ष के लक्षण में तथाविध तैमिरिक ज्ञान के प्रामाण्य के व्यवच्छेद हेतु जो 'अभ्रान्त' पद डाला गया है वह युक्तिशुन्य रह जायेगा । 'कल्पनाऽपोर्ट अभ्रान्तं प्रत्यक्षम्' इस लक्षण में 'कल्पनापोढं' पद से ही कल्पना का तो व्यवच्छेद सिद्ध हो जाता 15 है फिर 'अभ्रान्त' पद की सार्थकता कैसे होगी ? हाँ, तैमिरिक विज्ञान को निर्विकल्प माना जाय तो वह भ्रान्त होने से, उस में प्रामाण्य का व्यवच्छेद हेतु 'अभ्रान्त' पद सार्थक बनेगा। निष्कर्ष, कल्पना का पूर्वोक्त चौथा पक्ष भी न्यायसंगत नहीं है। अत एव सिद्ध होता है कि अर्थसामर्थ्य से उद्भव न होने मात्र से विकल्पज्ञान सब ‘प्रत्यक्षप्रमाण' रूप नहीं होते यह कथन निःसार है। 20 [ निर्विकल्प और सविकल्प के उत्पादकों में साम्य ] विकल्पों को इन्द्रियजन्य मानने के पक्ष में आपने (बौद्धों ने) जो दूषण अर्थ का उपयोग होने पर भी ... (२३५-२०) इत्यादि कह कर दिया है उस के प्रत्युत्तर में न्यायदर्शन वादी कहता है कि वह भी असंगत ही है। कारण यह है कि - जैसे निर्विकल्प की उत्पादक सामग्री के अन्तर्गत नेत्र-आलोक आदि सहकारी कारण परस्पर सापेक्ष रहते हुए भी कार्य को उत्पन्न करते हुए ही एक25 दूसरे से व्यवहित भी होते हैं, न कि कार्य उत्पन्न न करते हुए, क्योंकि उन का ऐसा- व्यवहित होकर कार्य जनन का स्वभाव है। तो ऐसे ही सविकल्प के उत्पादक नेत्र-आलोक आदि भी कार्य उत्पन्न करते हुए ही एक-दूसरे से व्यवधान (भेद) रखते हैं, और परस्पर सापेक्ष भी होते हैं। ऐसा होने के पीछे रहस्य यह है कि जैसे निर्विकल्प के उत्पादक कारणों का स्वभाव ऐसा होता है कि परस्पर व्यवधान (भेद) रखे और परस्पर सहकार से कार्य निपजावे, ठीक विकल्प के उत्पादक कारणों 30 का भी वैसा ही स्वभाव रहता है, इस में संदेह क्या ?! [ परस्पर सापेक्षता के विरह में सामग्रीवाद का भंग ] यदि ऐसा कहा जाय - “निर्विकल्प के लिये जो आपने बताया कि परस्पर सहकार स्वभाव... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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