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________________ २४६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विशेषणमुपादीयते, तथापि संस्कारजनके प्रसङ्गः। अथ एवंविशिष्टमुपलब्धिसाधनं यत् तत् प्रत्यक्षम् । ननु एवमप्यश्रुतपरिकल्पनाप्रसक्तिः। 'सामान्यलक्षणानुवादद्वारेण विशेषणलक्षणविधानाद् नाऽश्रुतकल्पने'ति चेत् ? न, एवमपि द्वितीयलिङ्गदर्शनेऽविनाभावस्मृतिजनके गोत्ववदर्थदर्शने च सङ्केतस्मृतिजनके प्रसङ्गः । तन्निवृत्त्यर्थमर्थोपलब्धिजनकत्वाध्याहारे विपर्ययज्ञानजनके प्रसङ्गः । विपर्ययज्ञानं हि सारूप्यज्ञानादुपजायते यथोक्तविशेषणविशेषितात्, तस्य चार्थोपलब्धित्वमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वप्रतिपादनात् सूत्रकारस्याभीष्टमेव । 'प्रत्यक्ष' प्रमाण है” – तो यह उचित नहीं है क्योंकि सूत्र में ‘यतः' पद का श्रवण नहीं है। सारांश, फल विशेषणवाला पहला पक्ष बेकार है। प्रथम पक्ष के दोषों का परिहार करने के लिये यदि Bदूसरा पक्ष पकडा जाय – इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण का स्वरूप है, मतलब कि 'जो ऐसा ऐसा स्वरूपवाला है वह प्रत्यक्ष है' तो फलितार्थ 10 यह होगा कि प्रत्यक्ष का तथाविधविशेषणविशिष्टज्ञानमय स्वरूप होगा, लेकिन प्रत्यक्षनिर्णय किसी अन्य ज्ञान का कारक तो नहीं होगा. जो कारक नहीं वह कारण यानी साधकतम भी नहीं हो सकता. फिर भी उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने से जो अकारक है उस में यानी प्रत्यक्षनिर्णय में प्रत्यक्षत्व की अतिव्याप्ति होगी। इस दोष से बचने के लिये यदि कारकत्व को भी विशेषण बना दिया जाय तो जो प्रत्यक्ष ज्ञान अन्यज्ञान का नहीं किन्तु संस्कार का जनक है (वह भी कारक होने से) उस में 15 अतिव्याप्ति तदवस्थ रहेगी। यदि संस्कार जनकता के द्वारा आने वाली अतिव्याप्ति से बचने के लिये यत्तत्कारकत्व को छोड कर 'तथाविधविशेषणविशिष्ट उपलब्धि का जो कारण (साधन) है वही प्रत्यक्ष है' ऐसी व्याख्या करेंगे तो यद्यपि अतिव्याप्ति दोष नहीं होगा किन्तु सूत्र में जो नहीं कहा है उस की कल्पना करने का दोष होगा (यानी सूत्र की न्यूनता का दोष आयेगा)। यदि कहें कि- “सूत्रकारने तो प्रत्यक्ष का विशेषलक्षण ही निरूपित किया है और विशेषलक्षण सामान्यलक्षण का अविनाभूत ही है - इस लिये ऐसा समझ सकते हैं कि सूत्रकार ने उपलब्धिसाधनत्वरूप सामान्य लक्षण से लक्षित प्रत्यक्ष का अनुवाद कर के ही उस में विशेषलक्षण का विधान किया है। अब अश्रुतकल्पना का दोष कैसे रहेगा ?" - तो ऐसा करने पर भी अविनाभावरूप व्याप्ति की स्मृति का जनक जो द्वितीय लिङ्गदर्शन है (जो कि न्यायमत में प्रमाण नहीं कहा जाता, धारावाही होने से।) तथा 'यह अर्थ गोपद का वाच्य है' इस तरह संकेत की स्मृति का जनक गोत्वजातिमद् गो अर्थ का दर्शन 25 है इन दोनों के उपलब्धिसाधनत्वरूप कारकत्व का अनुवाद हो कर इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्वादिविशेषणों का विधान लागु हो जाने से उन दोनों दर्शनों में अतिव्याप्ति लगी रहेगी। यदि इस दोष से बचने के लिये सामान्यलक्षण के अनुवाद को छोड दिया जाय, तो विपर्ययज्ञान के कारक में अतिव्याप्ति होगी। विपर्ययज्ञान (भ्रम) इन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्व रूप विशेषण से विशेषित सारूप्य (सादृश्य) ज्ञान से ही उत्पन्न होता है (किन्तु उस में अर्थोपलब्धिकारकत्वरूप सामान्य लक्षण नहीं होता) वह इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य 30 होने से सिर्फ ‘अर्थोपलब्धि' रूप ही होता है जो सूत्रकार को भी मान्य है। ऐसे विपर्ययज्ञान में अतिव्याप्ति तदवस्थ रहेगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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