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________________ २३४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ * सौगतैः न्यायमतीय-विकल्पप्रामाण्यनिरसनम् * ननु च विकल्परूपत्वाद् न व्यवसायात्मकस्येन्द्रियार्थजत्वम् कथमस्य प्रत्यक्षफलता ? न च व्यवसायात्मकस्याप्यध्यक्षता जैनमतानुसारेण व्यवस्थापनीया, तेनानै(ने)कान्तात्मकस्य वस्तुनोऽङ्गीकृतत्वात्, भवतस्त्वेकान्तवादिनस्तद्युक्तितः तद्व्यवस्थापनाऽसम्भवात् । 'कुतः पुनर्विकल्पस्यानर्थजत्वम् ?' शब्दार्थप्रतिभासस्वभावत्वात् । न हि विकल्पोऽर्थसामर्थ्यापेक्षः समुपजायते । निर्विकल्पं त्वर्थसंनिधानापेक्षम् तत्सामर्थ्यसमुद्भूतत्वात् प्रत्यक्षं प्रमाणम् । तदुक्तम् – 'यो ज्ञानप्रतिभासमन्वयव्यतिरेकावनुकारयति...' ( ) इत्यादि । अथ शब्दार्थप्रतिभासित्वेऽपि किमिति विकल्पानां नार्थजत्वम् ? रूपादेरर्थस्य स्वलक्षणत्वेन व्यावृत्तरूपत्वात् शब्दार्थत्वानुपपत्तेः, विकल्पप्रतिभास्याकारस्य तु तद्व्यतिरिक्तस्यार्थत्वानुपपत्तेः, सदसद्रूपस्य नित्यत्वाऽसत्त्वाभ्यां व्युत्पत्ति यह है 'व्यवसान (निश्चय) करे वह व्यवसाय'। मतलब, अन्य कोटि का व्यवच्छेद कर के 10 एक कोटि को ही आलम्बन करे वह व्यवसाय है। निश्चय (व्यवसाय) से विपरीत संशय है, क्योंकि वह परस्पर विरुद्ध दोनों कोटि को आलम्बन करता है। इस प्रकार सूत्रोक्तलक्षण का पदकृत्य पूर्ण हुआ। [विकल्परूप व्यवसाय अप्रमाण - बौद्ध ] बौद्धवादी :- व्यवसाय तो विकल्परूप है, वह इन्द्रियअर्थजन्य नहीं होता, तो उसे प्रत्यक्षफलक 15 कैसे माना जाय ? आप (नैयायिक) जैनमतावलम्बी बन कर व्यवसाय में 'प्रत्यक्षता' को सिद्ध करे वह अनुचित है क्योंकि आप तो एकान्तवादी है, अनेकान्तवाद की युक्तियों का सहारा ले कर आप विकल्प की प्रत्यक्षता स्थापित नहीं कर सकते। जैनों की बात अलग है, वे तो अनेकान्तवाद के द्वारा उस में 'कथंचित्' प्रत्यक्षता मान सकते हैं, क्योंकि वे वस्तुमात्र को 'तदतद्' रूप अनेकान्तात्मक मानते हैं। नैयायिक :- विकल्प अर्थजन्य क्यों नहीं होता ? बौद्धवादी :- क्योंकि वह शब्दार्थ (शब्दसूचित अर्थ) का प्रतिभासी होता है। विकल्प का जन्म अर्थसामर्थ्यप्रभव नहीं होता। निर्विकल्प तो अर्थबलजन्य होने से अर्थसंनिधानावलम्बी होता है अत एव निर्विकल्प 'प्रत्यक्षप्रमाण' रूप ही है। कहा भी है - जो (अर्थ), ज्ञानावभास को अपने अन्वयव्यतिरेक का अनुशीलन कराता है। (उस से जन्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है।) 25 नैयायिक :- भले ही विकल्प शब्दार्थप्रतिभासी हो, उसे अर्थजन्य क्यों न कहा जाय ? जब कि अर्थ के विना विकल्प भी नहीं होता ! बौद्धवादी :- सुनिये, शब्द सामान्य विषयक होता है अतः शब्दजन्य विकल्प भी सामान्यग्राही बन गया, जब कि रूपादि अर्थ तो स्वलक्षणात्मक होने से व्यावृत्त(विशेष)रूप होता है जो कि शब्द का विषय नहीं हो सकता। विकल्पावभासी विषय तो विशेषभिन्न होने से अर्थरूप ही नहीं है। आप 30 के मतानुसार सामान्यरूप विषय यदि 'सत्' है तो नित्य होगा और नित्य वस्तु अर्थक्रियाकारी न होने से ज्ञानादिजनक नहीं हो सकती। यदि सामान्य असत् है तो असत्त्व के जरिये वह ज्ञानजनक नहीं हो सकता। जो अनुवृत्तिरूप होता है वही शब्दवाच्य होता है, जब कि स्वलक्षण तो व्यावृत्तस्वरूप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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