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________________ 15 खण्ड-४, गाथा-१ २३५ तस्य ज्ञानजनकत्वनिषेधात्, अनुगतस्य चाऽ(?च)शब्दार्थत्वात् स्वलक्षणस्य च सर्वतो व्यावृत्ततयाऽनुगतत्वाऽसम्भवादनर्थजा: विकल्पाः । इतोऽप्यक्षार्थता न भवन्ति- अक्षार्थसंनिपातवेलायां प्रथमत एव तेषामनुद्भूतः। यदि हि तदुद्भवास्ते स्युः स्मृतिमन्तरेणानुभवत उत्पद्येरन्। न चार्थोपयोगेऽपि तामन्तरेण उत्पद्यन्ते। तदुक्तम् - अर्थोपयोगेऽपि पुनः स्मार्तं शब्दानुयोजनम्। अक्षधीर्यद्यपेक्षेत सोऽर्थो व्यवहितो भवेत्।। ( ) 5 यो हि यज्जन्यः स सदापात एव भवत्यविकल्पवत्, न भवन्ति च तदापातसमये विकल्पाः इति नार्थजन्यत्वं तेषां स्मृतिव्यवहितत्वात्। न चार्थस्य स्मृत्याऽव्यवधानं तस्यास्तत्सहकारित्वादिति वाच्यम, यतो यद्यर्थस्य ज्ञानजनकत्वं तदा तज्जनने किमित्यसौ स्मृत्यपेक्षः ? न च तया विना ज्ञानस्योत्पत्तिः, तद् नार्थः तज्जनकः । न च तदपेक्षस्य तस्य तज्जनकत्वम् तस्यास्तत्र व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तोपकारजनकत्वेनाऽकिञ्चित्करत्वात्। तदुक्तम् - 10 या प्रागजनको बुद्धरुपयोगाऽविशेषतः। स पश्चादपि ते न स्यादर्थापायेऽपि नेत्रधीः ।। ( ) होने से अनुवृत्ति का संभव ही नहीं है। निष्कर्ष, विकल्प का विषय स्वलक्षणरूप अर्थ नहीं होता, अनुवृत्ति (सामान्य) जो विकल्प का विषय होता है वह अर्थरूप न होने से, सिद्ध होता है कि विकल्प अर्थजन्य नहीं होता। [विकल्प अर्थजन्य होता नहीं - बौद्धवादी ] 'विकल्प इन्द्रियार्थजन्य नहीं होते' - इस में और भी चर्चा सुनिये - इन्द्रिय और अर्थ के संनिकर्ष के समय में सर्वप्रथम तुरंत ही विकल्पों का उद्भव नहीं हो जाता। यदि तुरंत ही उन का उद्भव होता तो अनुभविता को निर्विकल्पानुभव से, स्मरण के व्यवधान के विना ही वे (विकल्प) उत्पन्न हो जाते। अर्थसम्पर्क होने पर भी स्मृति के बाद ही विकल्प उत्पन्न होते हैं न कि स्मृति के विना। कहा गया है – “इन्द्रियबुद्धि यदि अर्थसम्पर्क के रहते हुये भी स्मृतिप्रेरित शब्दयोजना 20 (शब्दानुसन्धान) की प्रतीक्षा करती है तो वह अर्थ उस से अन्तरित हो जायेगा।” (तब इन्द्रियबुद्धि साक्षात् अर्थजन्य कैसे होगी ?)" ( ) नियम है कि जो जिस से उत्पन्न होता है वह निर्विकल्प की तरह उस के उपस्थित होते ही उत्पन्न हो जाता है। विकल्प अर्थोपस्थिति के होते ही हो नहीं जाते, अत एव वे अर्थजन्य नहीं होते क्योंकि वे स्मृति से अन्तरित होकर उत्पन्न होते हैं। यदि कहें कि - ‘स्मृति तो अर्थ की सहयोगिनी होने से 25 अर्थ को उस का व्यवधान बाधकारक नहीं होता' – तो यह कथन अयोग्य है, यदि अर्थ ज्ञान का जनक है तो ज्ञानजनन के लिये स्मृति का मुखप्रेक्षी क्यों ? जब स्मृति के विना ज्ञानोत्पत्ति नहीं मानते ति ही ज्ञानजनक हुई न कि अर्थ। यदि कहें कि - 'स्मृति तो सहकारी है और उस से सहकृत अर्थ ही ज्ञान उत्पन्न करता है' - तो वह गलत है क्योंकि स्मृति का अर्थ के ऊपर होनेवाला उपकार (सहकार) अर्थ से भिन्न है या अभिन्न - ऐसे विकल्पों के संगत न होने से स्मृति यहाँ सर्वथा अकार्यशील 30 ठहरेगी। कहा भी है - ( ) “(स्मृति न होने पर) जो अर्थ पहले बुद्धि का जनन नहीं करता, क्योंकि वह अकेला अनुपयुक्त (उदासीन) से बढ कर नहीं होता, तुम्हारे मत में वह पीछे भी ज्ञानजनक नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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