________________
२३२
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ ज्ञानत्वेऽपि तद् व्यभिचारि; असुखसाधने पराङ्गनादौ सुखस्य भावात् समानं व्यभिचारित्वमिति सुखनिवृत्त्यर्थं ज्ञानपदमर्थवत्।।
एतच्च केचिद् दूषयन्ति - नहि तापादिस्वभावं पराङ्गनायां सुखमुत्पद्यते अपि त्वालादस्वरूपम् यथा स्वललनायाम् । सुखसाधनत्वादेव चासक्तिहेतुत्वादधर्मोत्पादकत्वेन तस्या भाविनि काले दुःखसाधनत्वम्। 5 न च यस्यैकदा दुःखजनकत्वं तस्य सर्वदा तद्रूपत्वमेव, अन्यथा पावकस्य निदाघसमये दुःखजनकत्वात्
शिशिरेऽपि तज्जनकत्वमेव स्यात् । एवं देशाद्यपेक्षयापि न नियतरूपता भावानाम्। उक्तं च भाष्यकृता - ‘सोयं प्रमाणार्थोऽपरिसंख्येयः' (वा. भा.पृ.१ - पं. १२) इति। ततो व्यभिचाराभावात् न सुखनिवृत्त्या ज्ञानपदोपादानमर्थवत्।
प्रश्न :- अरे ! उस में व्यभिचार कैसा ? 10 उत्तर :- तो आप ही कहिये कि ज्ञान का व्यभिचार क्या होता है ? 'अतद् में तद्' ऐसा
भाव, ज्ञान का व्यभिचार है तो वैसे ही अस्वस्त्री के साथ यानी परस्त्री के साथ संगमसुख, यह भी व्यभिचार है।
प्रश्न :- मतलब, परस्त्री से उत्पन्न सुख सुख नहीं होता है क्या ? उत्तर :- हम भी पूछते हैं – मरीचिओं के विषय में उत्पन्न 'जलज्ञान' ज्ञान नहीं होता है क्या ? होता है, किन्तु वह ‘अतद्' 15 में 'तद्' ऐसा प्रकारवाला होता है इस लिये ज्ञानरूप होने पर भी व्यभिचारि है। हं ! तो हम भी
कहते हैं कि सुखरूप होने पर भी असुख का (भावि दुःख का) कारण होने से वह व्यभिचारि होता है। उस से विपरीत, स्वस्त्रीगमन का सुख (जैनेतरशास्त्रानुसार) अव्यभिचारि होता है। उस सुख की व्यावृत्ति के लिये ज्ञानपद का प्रयोग सार्थक है।
[सुखव्यावृत्ति हेतु 'ज्ञान'पदग्रहण निरर्थक ] 20 कुछ लोग इस समाधान पर दोषारोपण करते हैं - परस्त्री से उत्पन्न होने वाला सुख कोई
तापादिस्वरूप नहीं होता। जैसे स्वस्त्री का सुख आह्लादक होता है वैसे परस्त्री का भी होता है। इस प्रकार दोनों सुखसाधन ही है। फिर भी परस्त्री सुखसाधन होने के कारण ही आसक्ति प्रेरक होने से अधर्म (पाप) को उत्पन्न करने द्वारा भविष्यकाल में दुर्गति आदिदुख का कारण बनता है।
'इस भव में सुख का कारण, वही भवान्तर में दुःख का कारण हो सकता है क्या ?' हाँ ! एक 25 बार जो दुःख का साधन है वह तीनों काल में दुःखकारण ही हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
अन्यथा, ग्रीष्मऋतु में दुःख:कारक सूर्यातप जाडे की ऋतु में भी दुःखकारक ही बना रहेगा ।एवं गरम प्रदेश में पीडादायी अग्नि ठंडे प्रदेश में भी पीडादायि ही बना रहेगा - इस प्रकार देशादिअपेक्षासे भी पदार्थ की अनियतरूपता समझ रखना होगा। अत एव वात्स्यायन भाष्यकारने भी कहा है, 'प्रमाण
(भूत) अर्थ अपरिसंख्येय (अनिर्वचनीय) होता है।' प्रस्तुत में, सुख को व्यभिचारी-अव्यभिचारि दिखाना 30 उक्त रीति से अर्थशून्य ही है। इस लिये व्यभिचार का अवकाश न होने से सुख की व्यावृत्ति के
लिये 'ज्ञानपद' का प्रयोग सार्थक नहीं होगा।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org