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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २३१ तेन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वे तत्र सिद्धे । तस्मात् यद् ‘अतस्मिंस्तद्' इत्युत्पद्यते तद् व्यभिचारिज्ञानम् तद्व्यवच्छेदेन 'तस्मिंस्तत्' इति ज्ञानमव्यभिचारिपदसंग्राह्यम् । नन्वेवमपि ज्ञानपदमनर्थकम् अव्यभिचारिपदादेव ज्ञानसिद्धेः। व्यभिचारित्वं हि ज्ञानस्यैव, तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारित्वमपि तस्यैवेति ज्ञानपदमनर्थकम् । न, इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नस्याऽज्ञानरूपस्यापि सुखस्याऽव्यभिचारात् तन्निवृत्त्यर्थं ज्ञानपदमर्थवत्। किं पुनः सुखं व्यभिचारि ? यत् परयोषिति। ननु 5 कस्तस्य व्यभिचारः ? ज्ञानस्य क इति वाच्यम्। 'अतस्मिंस्तदिति भावः ? स सुखेऽपि समानः । किं पराङ्गनोत्पन्नं सुखं न भवति ? मरीचिषूदकज्ञानं किं न ज्ञानम् ? अथ 'अतस्मिंस्तदिति भावाद् कि वास्तव कर्म को सहकार देना। कर्म न होने पर वे किस का सहकार करेंगे ? फलतः सहकार के अभाव में कर्तृ-करण का भी यहाँ व्यभिचार माना गया है। आशंका - व्यभिचार भले रहो, किन्तु उस ज्ञान की व्यावृत्ति के लिये लक्षण में 'अव्यभिचारि' 10 पद का प्रयोग निरर्थक है। कारण, व्यभिचार ज्ञान को हम इन्द्रियसंनिकर्षजन्य नहीं मानेंगे। (इन्द्रियजन्य मानने पर भी इन्द्रियसंनिकर्षजन्य नहीं मानेंगे। तात्पर्य, ‘इन्द्रियसंनिकर्षजन्य' विशेषण से ही ‘मरीचिस्थल में होने वाले व्यभिचारिजलज्ञान' में अतिव्याप्ति रुक जायेगी। दूसरी बात, वहाँ 'जलज्ञान' होता है या मरीचिज्ञानाभाव रहता है यह भी विवादास्पद है। इस लिये तथाकथित जलज्ञान में न तो ज्ञानरूपता सिद्ध है, न इन्द्रियविषयसंनिकर्षजन्यत्व प्रसिद्ध है। तब व्यभिचारिज्ञान किस को कहेंगे, जिस की व्यावृत्ति 15 के लिये 'अव्यभिचारि' पद लगाना पडे ? उत्तर :- अतद् (शक्ति) वस्तु के विषय में 'तद्' (रजत) ऐसा उल्लेखगम्य बोध उत्पन्न होता है उसे व्यभिचारिज्ञान कहते है। उस को व्यावृत्त कर के जो 'तद्' (रजत) वस्तु के बारे में ‘तद्' (रजत) ऐसा उल्लेखवाला ज्ञान होता है उस का 'अव्यभिचारि' पद से संग्रह यानी निर्देश किया गया है। इस प्रकार 'अव्यभिचारि' पद सार्थक बनेगा। [अव्यभिचारि सुख में अतिव्याप्ति निवारणार्थ ज्ञानपद सार्थक ] आशंका :- नहीं, तो भी ज्ञानपद सार्थक नहीं होगा। जैसे, व्यभिचारि पद व्यभिचारि ज्ञान का ही वाचक है तो उस को व्यावृत्त कर के जो ‘अव्यभिचारि' पद से अव्यभिचारि ज्ञान का निर्देश हो जाता है फिर 'ज्ञान' पद की पनरावत्ति निरर्थक ठहरेगी। व्यभिचारित्व यदि ज्ञान का ही धर्म है तो उस के व्यावर्त्तन के लिये निर्दिष्ट अव्यभिचारित्व भी ज्ञान का ही धर्म है, इस प्रकार धर्मि- 25 प्रधान धर्म के निर्देश से ज्ञान का गर्भित रीति से निर्देश हो जाता है, अत एव लक्षणसूत्र में ज्ञान पद निरर्थक है। उत्तर :- नहीं। सुख भी, जो ज्ञानरूप नहीं है और इन्द्रियसंनिकर्ष से उत्पन्न होता है, अव्यभिचारि होता है। ज्ञानपद प्रयोग नहीं करे तो लक्षण की सुख में अतिव्याप्ति होगी। उस के निवारण के लिये 'ज्ञान' पद सार्थक होगा। 30 क्या सुख भी व्यभिचारि (और अव्यभिचारि) होता है ? हाँ, परस्त्री संग का सुख व्यभिचारि होता है। (लोक में भी परस्त्रीगमन करने वाले को व्यभिचारि कहा जाता है।) 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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