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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
व्यापारासम्भवादिन्द्रियस्य च स्वलक्षणविषयत्वात्रो भयोरेकविषयत्वमिति न तज्जन्यमेकं ज्ञानं सम्भवति । न, तयोर्भिन्नविषयत्वस्य 'व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थ:' ( न्याय सू.२-२-६५ ) इत्यत्र निषेत्स्यमानत्वात् तद्भावभावित्वाच्चोभयजन्यत्वं ज्ञानस्यावगतमेव । तथाहि - चक्षुर्गोशब्दव्यापारे सति 'अयं गौः' इति विशिष्टकाले ज्ञानमुपजायमानमुपलभ्यत एव तद्भावभावित्वेन चान्यत्रापि कार्यकारणभावो व्यवस्थाप्यते 5 तच्चात्रापि तुल्यमिति कथं नोभयजं ज्ञानम् ? न चान्तःकरणानधिष्ठितत्वदोषश्चक्षुषः, तेनाधिष्ठानात्, शब्दस्य च प्रदीपवत् करणत्वात् । न च ग्राह्यत्वकाले शब्दस्य करणत्वमयुक्तम्, श्रोत्रस्यैव तदा करणभावात्, शब्दस्य तु तदा ग्राह्यत्वमेव गृहीतस्य चोत्तरकालमन्तःकरणाधिष्ठितचक्षुःसहायस्यार्थप्रतिपत्तौ व्यापार इति भवत्युभयजं 'गौः' इति ज्ञानम् ।
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किन्तु उस का शाब्दबोध में अन्तर्भाव होता है, ऐसा जो कल्पित ज्ञान है वह यहाँ लक्ष्य नहीं है, 10 तब 'अव्यपदेश्य' शब्द के विरह में उस में होनेवाली अतिव्याप्ति का निवारण करने के लिये लक्षण में अव्यपदेश्य पद का प्रयोग सार्थक I
प्रश्न :- बौद्ध कहता है शब्द और इन्द्रिय का ज्ञेय विषय भिन्न भिन्न है । शब्द का विषय 'सामान्य' होता है और इन्द्रिय का गोचर स्वलक्षण होता है । इन्द्रिय गोचर स्वलक्षण में शब्द को
चञ्चुपात का अधिकार ही नहीं है । अत एव शब्द एवं इन्द्रिय उभय का एक विषय न होने से 15 उभयजन्य एक (अध्यक्ष) ज्ञान असम्भवित ही है । ( तो फिर अतिव्याप्ति का दोष ही कहाँ है ? ) समाधान :- ऐसा नहीं है । शब्द और इन्द्रिय की भिन्नविषयता का, न्यायसूत्रकार ने 'आकृति - व्यक्ति और जाति ये तीन (पद के वाच्य) पदार्थ होते हैं इस अर्थवाले सूत्र (२-२-६५ ) से निषेध दर्शाया है । एवं शब्द - इन्द्रिय युगल के रहते हुए कुछ ऐसे ज्ञान पैदा होते हैं जो उस युगल के विरह में नहीं होते इस प्रकार के अन्वयव्यतिरेक से भी कोई कोई ज्ञान में उभयजन्यत्व मानना जरूरी 20 है। कैसे ? यह देखिये
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[ इन्द्रिय- शब्दउभयजन्य ज्ञान का नमूना ]
निपजता है । वह उभय के
एक ओर गौ के प्रति चक्षुव्यापार हुआ और तभी किसीने 'गौ' शब्दप्रयोग किया, तब इन दोनों के साहचर्यवाले विशिष्टकाल में 'यह गाय है' ऐसा अनुभवसिद्ध ज्ञान होने पर निपजनेवाला है जो अन्वय - व्यतिरेकबल से सिद्ध है । उस के 25 उभय का एक ज्ञान के प्रति कारण-कार्य भाव निश्चित होता है । यहाँ प्रस्तुत में भी वही स्थिति समानरूप से जब है तब उभयजन्य अध्यक्षज्ञान का स्वीकार क्यों न हो ?
बल से अन्य स्थलों में भी
आशंका :- शब्दव्यापारकाल में चक्षु का व्यापार होने पर भी उस काल में चक्षु अन्तःकरण ( मन ) से अधिष्ठित नहीं हो सकता ।
उत्तर :- नहीं, उस काल में चक्षुः अन्तःकरण से अधिष्ठित ही रहती है, साथ में शब्द भी 30 उस काल में प्रदीप की तरह करण बना रहता है, जैसे चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोकसंयोग करण बना रहता है । फलतः तत्कालीनज्ञान उभयजन्य होता है ।
आशंका :- शब्द तो उस काल में ग्राह्य यानी विषयविधा में रहता है तो उस को करण कैसे
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