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________________ खण्ड - ४, गाथा - १ २२५ न चास्य प्रमाणान्तरत्वं युक्तम् उभयविलक्षणत्वात्; शाब्देऽव्यपदेश्यविशेषणस्याभावात् प्रत्यक्षे च भावादस्य शाब्दत्वात् । न च ' शब्देनैव यज्जन्यते तच्छाब्दम्' इति शाब्दलक्षणे नियमः अपि च 'शब्देन यज्जनितं तच्छाब्दम्'। अस्ति च प्रक्रान्ते एतद्रूपमिति कथं न शाब्दम् ? न चैतन्नास्ति न चाऽप्रमाणम् अव्यभिचारित्वादिविशेषणयोगात् । न चानुमानम् पक्षधर्मत्वाद्यभावात् । प्रत्यक्षमप्येतन्न भवति शब्देनाऽपि जन्यत्वात्। नाप्युपमानम् तल्लक्षणविरहात् । पारिशेष्याच्छाब्दम् । ननु शाब्दमपि न युक्तम् इन्द्रियेणापि 5 जनितत्वात् । न, शब्दस्यात्र प्राधान्यात् । प्राधान्यं च तस्य प्रभूतविषयापेक्षया । यतोऽसौ न क्वचिद् व्याहन्यते तथा च प्रत्यपादि भाष्यकृता 'यावदर्था वै नामधेयशब्दाः ' (१-१-४ वा.भा.) इति । न त्वेवमिन्द्रियम् तस्य स्वर्गादौ प्रतिहन्यमानत्वात् । तस्मात् प्राधान्याच्छब्देनैव व्यपदेशः । - - माना जाय ? करण तो श्रोत्रेन्द्रिय है । उत्तर :- हाँ, उस काल में शब्द ग्राह्य होता है किन्तु बाद में गृहीत हो जाने पर, अन्तःकरणाधिष्ठित 10 चक्षुव्यापार के सहकार में वह स्वयं भी अर्थबोध में व्यापारकारक हो जाता है। इस प्रकार उन दोनों के संयुक्त व्यापार से 'गाय' ऐसा एक ज्ञान पैदा होने में कोई बाध नहीं है। [ इन्द्रिय- शब्दउभयजन्य ज्ञान भी शाब्दबोध ही है ] आशंका :- शब्द- इन्द्रियउभयजन्य 'यह गाय' ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है तो शाब्द भी नहीं है, दोनों से विलक्षण होने से उस को एक पृथक् ही प्रमाण मानना चाहिये । उत्तर :- वह अयुक्त है । उभयजन्य ज्ञान का शाब्दप्रमाण में ही अन्तर्भाव होता है, क्योंकि शाब्दप्रमाण के लक्षण में 'अव्यपदेश्य' पद का समावेश नहीं है, इसलिये शाब्दप्रमाण में से उस का व्यवच्छेद नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष लक्षण में 'अव्यपदेश्य' पद होने से प्रत्यक्ष से व्यवच्छिन्न इस उभयजन्य ज्ञान को शाब्दबोध मान सकते हैं । शाब्दप्रमाण के लिये ऐसा नियम नहीं है कि " शब्द से 'ही' जो ज्ञान उत्पन्न हो ( न कि इन्द्रियादि से भी) वही शाब्द कहा जाय" । नियम सिर्फ इतना ही है कि शब्द 20 से जो उत्पन्न हो (साथ में इन्द्रिय से भी हो तो कोई हरकत नहीं ) वह शाब्द है । प्रस्तुत उभयजन्य विवादास्पदज्ञान में (इन्द्रियजन्यत्व होने पर भी) शब्दजन्यत्व तो है ही, फिर क्यों उसे ' शाब्द' न कहा जाय ? ' शब्द और इन्द्रिय उभय जन्य कोई ज्ञान होता नहीं' ऐसा तो नहीं कह सकते । 'वह सर्वथा अप्रमाण होता है' ऐसा भी नहीं है, क्योंकि प्रमाण का जो 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्ट अर्थोपलब्धि जनक सामग्री प्रमाण है' ( पृ०४९- १७) ऐसा लक्षण कहा गया है वह यहाँ भी संगत होता है। इस 25 उभयजन्य ज्ञान में किसी हेतु की पक्षधर्मतादि का अनुसंधान न होने से इसे 'अनुमान' नहीं कह सकते । शब्द भी इस का जनक होने से ( अव्यपदेश्यपद से व्यवच्छेद हो जाने पर) इसे प्रत्यक्ष भी नहीं कह सकते। उपमान प्रमाण का लक्षण यहाँ दिखता नहीं इस लिये 'उपमान' में भी इस का अन्तर्भाव नहीं है। आखिर जो बचा, परिशेषरूप शब्द प्रमाण में ही उस ( ' यह गाय' इस ज्ञान) का समावेश करना होगा । 30 आशंका : किन्तु इसे ( परिशेषन्याय से) शाब्द में मानना भी अयुक्त है क्योंकि इन्द्रियजन्य है । उत्तर :- नहीं, इन्द्रिय का यहाँ कुछ महत्त्व नहीं, शब्द का ही महत्त्व है । प्रचुर विषयक्षेत्र की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 15 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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