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खण्ड-४, गाथा-१
२२३ न च तुल्यकारणजन्यत्वात् ज्ञान-सुखादीनामेकत्वमिति तन्निवृत्त्यर्थं ज्ञानग्रहणं न कार्यम्, तुल्यकारणजन्यत्वस्याऽसिद्धत्वात्। वक्ष्यति च चतुर्थेऽध्याये ‘एकयोनयश्च पाकजाः' (वात्स्या.भा. ४१-५)। न च तेषामेकत्वमिति व्यभिचारः । प्रत्यक्षविरोधश्च सुप्रसिद्ध एव। तथाहि- आलादादिस्वभावाः सुखादयोऽनुभूयन्ते ग्राह्यतया च, ज्ञानं त्वर्थावगमस्वभावं ग्राहकतयाऽनुभूयते इति ज्ञान-सुखाद्योर्भेदोऽध्यक्षसिद्ध एव। विशिष्टादृष्टकारणजन्यत्वात् सुखादेः सुखादिजात्युत्पाद्यत्वाच्च न भिन्नहेतुजत्वमसिद्धं ज्ञान-सुखाद्योः, 5 अतो बोधजनकस्य ज्ञापनार्थं युक्तं ज्ञानग्रहणम् ।
अव्यपदेश्य-ग्रहणमप्यतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थम् । व्यपदेशः = शब्दः, तेन इन्द्रियार्थसंनिकर्षेण चोत्पादितमध्यक्षम् - शाब्देऽन्तर्भावात् – स्यात् तन्निवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यपदोपादानम् । नन्विन्द्रियविषये शब्दस्य सामान्यविषयत्वेन रखे तो सुखादि भी इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न है उस में प्रत्यक्ष के लक्षण की अतिव्याप्ति की निवृत्ति करने के लिये 'ज्ञान' शब्द जरूरी है।
[ ज्ञान-सुखादि के एकत्व का निरसन ] यदि कहा जाय - 'सुखदुःखादि में अतिव्याप्ति टालने के लिये ज्ञानपदोपादान निष्फल है क्योंकि सुखादि ज्ञान से भिन्न नहीं होते, आत्मा-मन-इन्द्रियादि समानकारणसामग्रीजन्य होने से ज्ञान और सुखादि का एकत्व सिद्ध है।' - तो यह ठीक नहीं है, ज्ञान-सुखादि की कारणसामग्री समान होने की बात असिद्ध है। न्यायसूत्र चौथे अध्याय के भाष्यादि में कहा गया है कि 'पाकज श्यामरूपादि एकयोनिक 15 (एक अग्निसंयोगजन्य) होते हैं।' फिर भी उन में एकत्व नहीं होता। अतः एकत्व की सिद्धि में तुल्यकारणजन्यत्व असमर्थ है। यदि एकयोनिक रूपादि में भेदसिद्धि के लिये कुछ कारणभेद मानेंगे तो वह यहाँ ज्ञान-सुखादि के लिये भी मान सकते हैं। ज्ञान और सुखादि का एकत्व मानने में प्रत्यक्षविरोध भी सुगम है। देखिये - सुख का अनुभव आलादमय एवं ग्राह्यरूप होता है, दुःख का अनुभव कटु एवं ग्राह्यरूप से होता है, जब कि ज्ञान का अनुभव सिर्फ ग्राहक (वेदन) रूप ही होता है जो कि 20 तत्तदर्थ के बोधस्वरूप है। इस प्रकार, ज्ञान और सुखादि का भेद प्रत्यक्षसिद्ध ही है। ज्ञान सामग्री के उपरांत विशिष्ट अदृष्ट रूप कारण से सुखादि का उदभव होता है, तथा सुखादि सखादिजातिवाले कारण से और ज्ञान ज्ञानजातीय कारण से उत्पन्न होता है, अत एव सुखादि एवं ज्ञान में असमानहेतुजन्यत्व सिद्ध है, तुल्यकारणजन्यत्व पूर्णतया नहीं है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष के लक्षणसूत्र में 'ज्ञान' पद रखा गया है जिससे यह सूचित हो कि यह बोधजनक स्वभाववाला है (जो कि सुखादि जनक से 25 भिन्न है।)
[ प्रत्यक्षलक्षण सूत्र में अव्यपदेश्य-पद की सार्थकता ] __न्यायदर्शन के प्रत्यक्षसूत्र में जो 'अव्यपदेश्य' पद प्रयुक्त है उस से शब्द और इन्द्रिय उभयजन्य ज्ञान में संभवित अतिव्याप्ति का वारण किया गया है। व्यपदेश का अर्थ है शब्द, अव्यपदेश्य यानी शब्द से अजन्य। कुछ ऐसा ज्ञान होता है जो शब्द और इन्द्रियसंनिकर्ष दोनों से उत्पन्न होता है 30 4. अव्यपदेश्यपद चर्चा वात्स्यायन भाष्य- न्यायवार्तिक- तात्पर्यटीका - न्यायमञ्जरीषु ग्रन्थेषु तत्कर्तृभिः बहुपल्लविता दृश्यते इति भूतपूर्व सम्पादकयुगलाभिप्रायः ।
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