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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
‘अर्थसंनिकर्षादुत्पन्नम्’
नन्वेवमपीन्द्रियग्रहणानर्थक्यम् । न, अनुमानव्यवच्छेदार्थत्वात् । तथाहि इत्यभिधीयमानेऽनुमाने प्रसङ्ग इतीन्द्रियग्रहणमिन्द्रियविषयेऽर्थे संनिकर्षाद् यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् प्रत्यक्षमनुमानादिभ्यो व्यवच्छिनत्ति, न चानुमानिकमिन्द्रियसम्बन्धादिन्द्रियविषये समुत्पद्यत इति । ' तथाप्यर्थग्रहणमनर्थकम् ' इति चेत् ? न, स्मृतिफलसंनिकर्षनिवृत्त्यर्थत्वात् । तथाहि आत्माऽन्तःकरणसम्बन्धात् स्मृतिरुपजायते 5 इति तज्जनकस्यापि प्रत्यक्षत्वं स्याद् असत्यर्थग्रहणे । न चेन्द्रियार्थसंनिकर्षजा स्मृतिः अतीतस्यापि स्मर्यमाणत्वात् तस्य च तदाऽसत्त्वात् । उत्पत्तिग्रहणं कारकत्वज्ञापनार्थम् । ज्ञानग्रहणं सुखादिनिवृत्त्यर्थम् ।
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हैं, स्वमतिकल्पित संयुक्तसंयोगादि कोई सच्चा कारण नहीं है, 'सं' शब्द के प्रयोग से इस सूचना का लाभ होता है ।
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[ सं
इन्द्रिय- अर्थ इत्यादि पदों की सार्थकता ]
पूर्वपक्षी : 'सं' का ग्रहण सार्थक बताने पर भी 'इन्द्रियार्थ संनिकर्ष' इस प्रयोग में इन्द्रियशब्दप्रयोग व्यर्थ है । संनिकर्ष के छ प्रकार इन्द्रिय को शामिल कर के ही दिखाये गये हैं । तब पृथक् 'इन्द्रिय' शब्दप्रयोग क्यों ?
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उत्तरपक्षी :- नहीं, अनुमान प्रमाण में प्रत्यक्षलक्षण की अतिव्याप्ति रोकने के लिये वह सार्थक है। सिर्फ ‘अर्थसंनिकर्ष से उत्पन्न' इतना ही कहेंगे तो अनुमान भी परम्परया अर्थसंनिकर्ष से उत्पन्न 15 होने के कारण उस में प्रत्यक्षत्व की अतिव्याप्ति होगी, उस को रोकने के लिये 'इन्द्रिय' शब्द प्रयुक्त है। तात्पर्य यह है कि 'इन्द्रिय के विषयभूत अर्थ में संनिकर्ष के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वही प्रत्यक्ष है' ऐसा लक्षण अपने लक्ष्य प्रत्यक्ष को अनुमानादि प्रमाण से पृथक् सिद्ध कर देता है । कारण, अनुमान ज्ञान इन्द्रियविषयभूत अर्थ में इन्द्रिय के संनिकर्ष से उत्पन्न नहीं होता ।
पूर्वपक्षी :- तो 'अर्थ' शब्दप्रयोग निरर्थक नहीं है क्या ?
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उत्तरपक्षी :- नहीं, स्मृतिरूप कार्य के जनक मन और आत्मा का संनिकर्ष यहाँ नहीं लेना है। ( मन एक इन्द्रिय ही है ।) उस को बाद करने के लिये 'इन्द्रियार्थ' यहाँ अर्थ शब्दप्रयोग जरूरी है। देखिये स्मृति रूप कार्य मन एवं आत्मा के संयोग संनिकर्ष से निष्पन्न होता है । अतः वह ( तज्जनकस्य ) इं० संनिकर्ष जनक है जिस का ( ऐसा बहुव्रीही समास करने से ) ऐसे स्मृतिज्ञान में भी इन्द्रियसंनिकर्षजन्यत्व
दिया जाय । स्मृति तो अतीत को
होने से प्रत्यक्षत्व प्रसक्त होगा यदि लक्षण में 'अर्थ' शब्द छोड 25 भी विषय करती है अत एव वह इन्द्रिय और ( अतीत ) अर्थ के
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उस काल में वह अतीत अर्थ असत् है । अत एव स्मृति प्रत्यक्षरूप नहीं है ।
यद्यपि 'इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से उत्पन्न' ऐसा कहने के बदले 'इन्द्रियार्थसंनिकर्ष के निमित्त से होनेवाला ' ऐसा कहे तो भी आपाततः कोई हानि नहीं है । फिर भी वहाँ शंका होगी कि प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रियार्थ - संनिकर्ष, घट के प्रति दीपक की तरह व्यञ्जक है या घट के प्रति दण्डादि की तरह कारक है ? 30 क्योंकि निमित्त शब्द से तो व्यञ्जक भी लिया जा सकता है। इस शंका को निर्मूल कर के, इन्द्रियार्थसंनिकर्ष की कारकता स्थापित करने हेतु 'उत्पन्न' शब्द का प्रयोग समुचित है। लक्षणसूत्र 'ज्ञान' शब्द न
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संनिकर्ष से जन्य नहीं होती, क्योंकि
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