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खण्ड-४, गाथा-१
२२१ __ अथ 'निकर्ष' ग्रहणमेवास्तु 'सं' ग्रहणं व्यर्थम् । न, संशयादिज्ञाननिवृत्त्यर्थत्वात् 'सं'शब्दोपादानस्य। तथाहि- सम्यग् निकर्षः संनिकर्षः। सम्यक्त्वं तु तस्य यथोक्तविशेषणविशिष्टफलजनकत्वेन । 'नैतत्, अव्यभिचारादिपदोपादानवैयर्थ्यप्रसक्तेस्तदर्थस्य 'सं'शब्दोपादानादेव लब्धत्वाद्'। न, अव्यभिचारादिविशेषणोपादानमन्तरेण तत्सम्यक्त्वस्य ज्ञातुमशक्तेः। कारणस्य ह्यतीन्द्रियस्य सम्यक्त्वमसम्यक्त्वं वा सम्यगसम्यक्कार्यद्वारेणैव निश्चीयते इति तत्फलविशेषणार्थमव्यभिचार्यादिपदोपादानं कारणसाधुत्वावगमाय 5 न व्यर्थम् । नन्वेवमपि 'सं'शब्दोपादानानर्थक्यम् अव्यभिचारादिपदोपादानादेव तत्फलस्य विशेषितत्वात् । न, 'सं'ग्रहणस्य संनिकर्षषट्कप्रतिपादनार्थत्वाद्, एतदेव संनिकर्षषट्कं ज्ञानोत्पादे समर्थं कारणम् न संयुक्तसंयोगादिकमिति 'सं'ग्रहणाल्लभ्यते । यहाँ कारणविधया लक्षण रूप से प्रदर्शित है। मन-इन्द्रिय का सम्बन्ध भी यहाँ अन्यसाधारण कारण है लेकिन लक्षण में वह कारणविधया विवक्षित नहीं है, क्योंकि वह कारणरूप से भी सभी प्रत्यक्ष 10 में व्यापक नहीं है। उदा० सुखादिसाक्षात्कार सिर्फ मन-आत्मा संयोग से ही उत्पन्न होता है उस में इन्द्रिय-मन संयोग कारण नहीं होता।
[ 'संनिकर्ष' शब्द में 'सं' उपसर्गग्रहण व्यर्थता का निरसन ] 'संनिकर्ष' शब्द में 'सं' उपसर्ग का प्रयोग संशयादिज्ञानों की व्यावृत्ति के लिये किया गया है, फोकट ही 'सं' का प्रयोग नहीं किया है। अकेले ‘निकर्ष' शब्द से संशयादि की निवृत्ति अशक्य है। 15 कैसे यह देखिये – संनिकर्ष यानी सम्यक् निकर्ष । निकर्ष का सम्यक्पन क्या है - अव्यभिचारी आदि विशेषणधर्मों से विशिष्ट फल की जनकता, जो ‘सं' से सूचित है।
पूर्वपक्षी :- आप की बात अयोग्य है। यदि 'सं' शब्द से ही अव्यभिचारि आदि विशेषणों से विशिष्ट फल प्राप्त हो गया तो फिर सूत्रमें 'अव्यभिचारि' आदि पदों का प्रयोग बेकार हो जायेगा।
उत्तरपक्षी :- नहीं, 'सं' शब्द से जो 'सम्यक्त्व' सूचित होता है वह तभी मालूम पडेगा जब 20 'अव्यभिचारि' आदि पदों का प्रयोग होगा। उन के विना सम्यक्त्व का स्वरूप जानना अशक्य बना रहेगा। इन्द्रियसंसर्ग को कारण कहा है किन्तु 'कारण' रूप से वह अतीन्द्रिय होने से उस का सम्यक्त्व या असम्यक्त्व तभी निश्चित होगा जब उस का कार्य सम्यक है या असम्यक - उस का पता चलेगा। (यदि रोगशमनादि कार्य निर्धारित स्वरूप से सम्यग्रूप से निष्पन्न होगा तो 'कारण' का सम्यक्त्व ज्ञात होगा - अन्यथा असम्यक्त्व प्रगट होगा।) इस प्रकार अव्यभिचारि आदि विशेषणों की सफलता 25 दिखाने के द्वारा ‘कारण' के सम्यक्त्व को प्रदर्शित करने के लिये, ‘कारण' की अमोघता का उपदर्शन कराने के लिये अव्यभिचारिआदि पदप्रयोग सार्थक है, व्यर्थ नहीं है।
पूर्वपक्षी :- तब तो 'सं' का प्रयोग निष्फल हुआ। ‘सं' शब्द से आप जो कारणसम्यक्त्व सूचित करना चाहते है वह तो अव्यभिचारि आदि पदप्रयोग के द्वारा फल को विशेषित करने से ही सिद्ध हो गया।
30 उत्तरपक्ष :- नहीं, संनिकर्ष के छ भेदों का सूचन करना यह भी 'सं' के प्रयोग का उद्देश है। हम यह दिखाना चाहते हैं कि ये जो छ संनिकर्ष हैं वे ही प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्ति के सक्षम कारण
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