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________________ २२० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ चाकाशलिङ्गत्वादाकाशसमवायित्वं निश्चितमिति समवाय एवेत्युक्तम्। शब्दत्वे समवेतसमवाय एव परिशेषात्। समवायाभावयोश्च विशेषण-विशेष्यभाव एव परिशेषात्। लक्षणस्य च त्रैविध्यात्* कथमेतल्लक्षणं व्यवच्छिनत्ति इत्यन्यव्यवच्छेदार्थमिन्द्रियार्थसंनिकर्षः कारणमित्यभिधीयते। कारणत्वेऽप्यसम्भविदोषाशङ्कापरिजिहीर्षयाऽन्याननुयायि कारणवचनं न 5 त्वन्यानुयायिकारणनिवृत्तिः एवंभूतस्य इन्द्रियार्थसंनिकर्षस्यैव कारणत्वाभिधानम् न त्वन्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धस्य तस्याऽव्यापकत्वात् अव्यापकत्वं तु सुखादिज्ञानोत्पत्तावसम्भवात्। (४) शब्द आकाश का गुण है और श्रोत्रेन्द्रिय आकाश रूप है अतः श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द के साथ समवाय ही संनिकर्ष बनेगा। न्यायमत में शब्द को आकाश का गुण ही माना है, गुण होने से उस के समवायिकारणरूप में आकाशद्रव्य की सिद्धि होती है। इस प्रकार वह आकाशसमवेत 10 होने से यहाँ ‘समवाय' संनिकर्ष ही निश्चित होगा। (५) श्रोत्रेन्द्रिय में समवेत शब्द होता है और शब्द में शब्दत्वादि जातियों का समवाय होता है अतः परिशेषरूप से श्रोत्रेन्द्रिय का शब्दत्व जाति के साथ ‘समवेतसमवाय' ही संनिकर्ष बन सकता (६) इन्द्रिय से समवाय या अभाव का प्रत्यक्ष करना हो तब संयोग या समवाय वहाँ संनिकर्ष के 15 रूप में उपयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि समवाय या अभाव की वृत्ति समवाय से नहीं होती। वे दोनों अपने आश्रय में (यानी विशेष्य में) शुद्ध विशेषणरूप से ही रहते हैं अतः उन दोनों के साथ इन्द्रियों का विशेषण-विशेष्यभाव (यानी विशेषणता अथवा दूसरा नाम स्वरूपसम्बन्ध) ही परिशेष रूप से संनिकर्ष होता है। लक्षण के तीन प्रकार है - उन में से यहाँ व्यावर्त्तकत्व ही घटता है - तो कैसे यह लक्षण 20 व्यवच्छेदक (= व्यावर्तक) होता है (यानी अलक्ष्य से लक्ष्य की पृथक् पहिचान प्रदर्शित करता है।) इस प्रश्न का भावार्थ यह है - यहाँ जो प्रत्यक्ष के लक्षण में इन्द्रियसंनिकर्ष का निरूपण किया वह किस प्रकार से (यानी किसका) व्यवच्छेद करता है यह प्रश्न हो सकता है – उस का उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष का इन्द्रियसंनिकर्ष के अलावा कोई कारण नहीं है, मतलब कि यहाँ अन्य वस्तु की कारणता का व्यवच्छेद कर के यह कहा जाता है कि इन्द्रियसंनिकर्ष ही प्रत्यक्ष का कारण है। इस 25 प्रकार कारणात्मक लक्षण कहने पर भी लक्षण यदि असाधारणकारणरूप न हो तो उस की संगति का सम्भव नहीं रहेगा - इसलिये असम्भवि दोष की आशंका निवृत्त करने के लिये अन्य में न हो ऐसे असाधारण यानी अन्यसाधारण न हो ऐसे कारण का लक्षणरूप से निर्देश किया है। (इन्द्रियसंनिकर्ष अन्यसाधारण कारण नहीं है।) इस का मतलब यह नहीं है कि अन्यसाधारण हो ऐसे (मन-इन्द्रियसंयोगादि) कारण का व्यवच्छेद किया जाय । मतलब इतने से है कि जो अन्यसाधारण नहीं है ऐसा ही इन्द्रियार्थसंनिकर्ष -. १-इतरभेदज्ञापकम्, २-पदार्थतत्त्वम्, ३-व्यावर्तकम् इति त्रैविध्येन भवितव्यम् । *. कारणगर्भत्वेन कार्यगर्भत्वेन स्वरूपगर्भत्वेन च लक्षणस्य त्रैविध्यं न्यायगतलक्षणमीमांसायां प्रसिद्धम् । तद्यथा- कपालमयत्वादि, जलाहरणादि, कम्बुग्रीवत्वादि च यथाक्रमं कारणगर्भम् कार्यगर्भम् स्वरूपगर्भं च घटस्य लक्षणं भवितुमर्हति- इति भूतपूर्वसम्पादकयुगलमतम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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