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खण्ड-४, गाथा-१
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यदपि- 'रूपदर्शनाद् लिङ्गात् परोक्षार्थक्रियायोग्यताध्यवसायानुमानमुदयमासादयद् व्यवहृतिमुपजनयति' इति - (१४८-६) तदप्ययुक्तम्, फलजननयोग्यतायाः परोक्षत्वाऽसिद्धेः । प्रतिभासमानरूपस्य चाऽनिश्चितस्य लिङ्गत्वायोगात्। अनुमानात् तन्निश्चयेऽनवस्थाप्रतिपादनात्, अध्यक्षतस्तन्निश्चये च सिद्धं निर्णयात्मकं अध्यक्षम् । यदपि ‘अनिश्चयात्मकमध्यक्षमभ्यासदशायां प्रवृत्तिमुपरचयद् दृष्टम्' (१५०-१०) तदप्यसंगतम्, शब्दोल्लेखशून्यस्यापि सावयवैकरूपार्थाधिगतिस्वभावस्य सविकल्पतया व्यवस्थापनात् तमन्तरेणाभ्यासदशायामपि 5 प्रवृत्त्यनुपपत्तेः। यत् पुनः सर्वदानुमानात् प्रवृत्त्यभ्युपगमे लिङ्गग्रहणाभावतोऽध्यक्षेणानवस्थादूषणमभ्यधायि (१५०-११) तद् युक्तमेव। यदपि 'पौवापर्येऽप्रवृत्तमध्यक्षं कथं तादृग्लिङ्गग्रहणे क्षमम्' इति (१५१-३) पूर्वपक्षमुत्थाप्य ‘लोकाभिमानादेवाध्यक्ष लिङ्गग्राहि व्यवहारकृच्च, तत्त्वतस्तु स्वसंविन्मात्रत्वाद् न प्रत्यक्षानुमानभेदः' इत्युत्तराभिधानम् (१५१-७) तदप्यसंगतम्, प्रत्यक्षानुमानभेदस्याऽपारमार्थिकत्वे स्वसंवेदनमति अगृहीतग्राही (यानी दर्शन से भिन्नविषयक) होने से प्रमाण क्यों न मानी जाय ?' - यह कथन 10 तो इष्टापत्ति है, हम तो कहते हैं फलसम्बन्धिता के ग्रहण के विना अविकल्पस्वरूप दर्शनपरिणाम भी शून्य बनता हुआ असत् ठहरता है।
[ फलसाधनयोग्यता की परोक्षता... इत्यादि निरूपण का प्रत्युत्तर ] यह जो कहा था (१४८-२८) – 'अर्थक्रियाकारिरूप के दर्शनरूप हेतु से परोक्ष अर्थक्रियायोग्यता के अध्यवसाय के अनुमान का उदय होता है और उसी से व्यवहार सम्पन्न होता है न कि प्रत्यक्ष 15 से...' यह भी गलत है क्योंकि फलसाधनयोग्यता (अर्थक्रिया योग्यता) परोक्ष होने की बात असिद्ध है। समर्थरूप का यदि प्रत्यक्ष निश्चय नहीं होगा तो वह (रूपदर्शन) 'लिङ्ग' ही नहीं बनेगा, अनुमान से उस का निश्चय करने जायेंगे तो उस अनुमानकारक लिङग का भी दूसरे अनुमान से, उस के लिङ्ग का तीसरे अनुमान से... इस प्रकार शृंखला चलेगी तो अनवस्था दोष लगेगा। यदि अनुमान के बदले प्रत्यक्ष से ही दूसरे (या तीसरे आदि) अनुमान के लिङ्ग का निश्चय मानेंगे तो यह सिद्ध 20 हो गया कि प्रथम लिङ्गभान (यानी समर्थरूपयोग्यता का भान भी) प्रत्यक्ष निर्णयात्मक ही हो सकता है। यह जो कहा है (१५०-३०) - अभ्यासदशा में अनिर्णयरूप प्रत्यक्षा से भी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है - वह भी अयुक्त है, क्योंकि सविकल्प सिर्फ शाब्दबोध रूप ही नहीं होता किन्तु शन्दोल्लेखविनिर्मुक्त सावयव एकरूप अर्थावबोध स्वरूप सविकल्पात्मक होता है यह पहले स्थापित किया जा चुका है, अत एव अभ्यासदशा में भी निर्णयात्मक सविकल्प प्रत्यक्ष से ही प्रवृत्ति हो सकती है। तथा (१५०- 25 ३०) यह जो दूषण कहा है, हर हमेश अनुमान से ही प्रवृत्ति का होना मानेंगे तो लिग का भी लिङ्गरूप से प्रत्यक्ष निर्णय न होने पर अनुमान से उस का निर्णय करने में अनवस्था दोष दर्शाया गया है वह युक्तिसंगत ही है।
यह जो पूर्वपक्षीने कहा है (१५१-१८) - पूर्वापरभाव के अवबोध में अप्रवर्त्तमान प्रत्यक्ष तथाविधलिङ्ग के अवबोधार्थ समर्थ कैसे होगा ? ऐसा पूर्वपक्ष दिखला कर फिर उस के उत्तर में 30 जो आपने कहा है – 'प्रत्यक्ष लिङ्गग्राही एवं व्यवहारकारी होता है यह सिर्फ लौकिक मान्यता ही है, वास्तव में तो सब संवेदन स्वसंवेदनमात्ररूप ही होता है इसलिये (प्रत्यक्षात्मक ही होने से) प्रत्यक्ष
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