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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ सत्यवेदिता, तस्याश्च तत्सत्यतेति कथं नेतरेतराश्रयत्वम् ? 'यथा च लिङ्गनिश्चयाद् विशदतनोरनुमितिरविशदावभासा पृथगवसीयते न तथा प्रकृतविकल्पात् पृथगविकल्पिका मतिः कदाचिदप्यनुभूयते' इति - तत् सत्यमेव, निरंशक्षणिकैकपरमाण्ववभासस्याऽसत्त्वप्रतिपादनात्। यदपि 'न चापि लिङ्गतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम्' (१४२-३) इत्यादि प्रत्यंगि(?त्यग्गि)रयोपन्यस्तम् तत् सर्वमयुक्ततया स्थितम् । यदपि ‘जात्यादेरभावात् तद्विशिष्टार्थप्रतिपत्तिः सविकल्पिका न संभवति' (१४२-१०) इति, तदपि प्रतिक्षिप्तत्वान्न पुनः समाधानमर्हति। यच्च ‘फलयोग्यता परोक्षेति नाध्यक्षमतिर्निश्चयात्मिका तत्र प्रवर्त्तते' इति (१४४-८) तदपि प्रतिविहितमेव । यच्च ‘दर्शनपरिणत्यनवगतं फलसम्बन्धित्वमवगच्छन्ती कथं न भिन्नविषया' इति (१४६-६) तत् सिद्धमेव साधितम्, तद्व्यतिरेकेण दर्शनपरिणतेरविकल्पिकाया अभावात्।
[ अन्योन्याश्रयादि दोषाशंकाओं का प्रत्युत्तर ] पहले जो आपने अन्योन्याश्रय दोष (१३६-२०) का प्रसञ्जन किया था - “स्मृतिगृहीत अर्थ का सातत्य सिद्ध होने पर, उस के ग्रहण में दर्शन की प्रवृत्ति होगी, अर्थात् उस अर्थ में वृत्ति (उस अर्थ विषयक) स्मृति के पश्चाद् होनेवाले प्रत्यक्ष (सविकल्प) की यथार्थता सिद्ध होगी, और प्रत्यक्ष की यथार्थता सिद्ध होने पर स्मृति के विषय का सातत्य सिद्ध होगा।” – यह दोष स्वसंवेदन के
प्रति समान ही है। यथा, संवेदन की यथार्थता के आधार पर ही स्वसंवेदन में सत्यविषयता स्थापित 15 होगी, और उस के स्थापित होने पर संवेदन की यथार्थता प्रसिद्ध हो सकेगी। स्वसंवेदन भी कहाँ अन्योन्याश्रयमुक्त है ?
यह जो कहा है – “स्पष्टावभासि लिङ्गनिश्चय और अस्पष्टावभासि अनुमिति जिस तरह पृथक् पृथक् संविदित होती है, उसी प्रकार प्रस्तुत (पौवापर्यग्राही) विकल्प और अविकल्प (जो कि निरंशग्राही
है,) मति का पृथक् पृथक् संवेदन नहीं होता है” – यह तो यथार्थ ही है लेकिन इस से अविकल्पभिन्न 20 प्रत्यक्ष का निरसन नहीं होता किन्तु सविकल्पप्रत्यक्ष से अतिरिक्त निर्विकल्प का ही निरसन होता
है क्योंकि पहले हमने निरंश-क्षणिक-एकपरमाणुग्राहि प्रत्यक्ष की अयथार्थता का प्रतिपादन कर दिखाया है। अत एव (स्मृतिविषय के सातत्य की यथार्थता सिद्ध होने से) आप का वह आपादन, (१४२३) धूमादिलिङ्गदर्शन के उत्तरकाल में अग्नि की अनुमिति के बाद अग्नि के ग्रहण में इन्द्रिय के
प्रवर्तन को कोई रोक नहीं सकता.... इत्यादि काकू (वक्र) ध्वनि से कहा गया है वह सब अयथार्थ 25 सिद्ध होता है। कारण, अग्नि का अर्थी वहाँ जा कर उसी अग्नि का प्रत्यक्ष कर सकता है।
___ यह जो कहा था (१४२-१५) - ‘जाति आदि तो शून्य है अत एव जातिविशिष्ट अर्थ का सविकल्प भान भी असंभव है।' – उस का भी पहले प्रतिरोध हो चुका है इस लिये फिर से उस का निषेध करने की जरुर ही नहीं है। यह जो कहा था (१४४-३२) - ‘फल योग्यता परोक्ष होने
से निश्चयात्मक प्रत्यक्षबुद्धि का विषय नहीं बन सकती।' – उस का भी निषेध हो चुका है, (१४८30 २५) अभ्यासदशा में पर्यालोचन के विना भी योग्यता प्रत्यक्षग्राह्य है। यह जो कहा था (१४६-२४)
‘फलसम्बन्धिता (यानी अर्थक्रिया साधकता) जो दर्शन से अगृहीत है, उस का ग्रहण करनेवाली सविकल्प
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