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खण्ड - ४, गाथा - १
२१३
दर्शनेन स्वग्राह्यस्य तद्विवेकः प्रतीयते तथा तेन तस्य तत्संसृष्टता किमिति नावगम्यते ? इति न युक्तं 'पूर्वदर्शनाद्यप्रतीतौ तद् दृष्टतादिकं तस्य न प्रत्येतुं शक्यमित्याद्यभिधानम् । यदि च प्राप्याऽप्रतीतावपि दृश्यदर्शनेन स्वग्राह्यस्य तदेकत्वं प्रतीयते । अन्यथा तस्याऽविसंवादकत्वायोगात् प्रामाण्यं न स्यात् - किमित्यर्थक्रियाऽदर्शने तत्समर्थरूपाऽप्रतिपत्तिर्येन प्रकृतविकल्पात् प्रवृत्तिर्न भवेत् ? !
यदपि 'स्मर्यमाणस्यार्थस्य सत्त्व ( ? ) सिद्धेस्तद्वृत्तिस्मृत्यन्तरभाविनोऽध्यक्षस्य सत्यता'... (१३६-५) 5 इत्यादीतरेतराश्रयत्वं' प्रेरितम् तत् स्वसंवेदनेऽपि समानम् । तथाहि - संवेदनस्य सत्यत्वे तत्स्वसंवेदनस्य का उद्भव अशक्य होने से उस को संवेदनविषयक मानना जरूरी । उस के विपरीत, संवेदन तो अर्थ के विना भी होता है अत एव संवेदन को अर्थविषयक मानना जरूरी नहीं ।' तो यहाँ दो प्रश्न हैं A संवेदन के न होने पर इस का मतलब यह है कि 'क्षणिक - निरंश-एकपरमाणु आकार संवेदन के न होने पर ?' या Bक्षणिकादिआकार से विपरीतस्वरूपवाले संवेदन के न होने पर ?' 10 Aपहला पक्ष अयुक्त है क्योंकि स्वसंवेदन तो हमेशा क्षणिकादि आकारसंवेदन के विरह में ही होता है । दूसरा पक्ष मानने पर तो यही फलित होगा कि क्षणिकादिआकार से विपरीतस्वरूपवाले (यानी स्थिरादि आकारवाले) संवेदन के न होने पर स्वसंवेदन भी नहीं होता है किन्तु स्थिरादिआकारवाले संवेदन के रहने पर ही स्वसंवेदन होता है यहाँ आप की मान्यता से तो बिलकुल उलटा ही तथ्य सिद्ध हुआ। जैसे स्थिरस्थूलाकारसंवेदन के विरह में न होनेवाला संवेदन स्थिरादि आकारविषयक 15 सिद्ध होता है वैसे ही स्थिर स्थूल अर्थ के विरह में न होने वाले संवेदन से स्थिर-स्थूलअर्थविषयता भी संवेदन में क्यों सिद्ध न हो, जिस से कि 'स्थिरादि तत्त्व नेत्रेन्द्रिय का विषय नहीं है' ऐसा कहा जाय ?
[ विकल्प से अर्थक्रियासमर्थ रूप के भान की उपपत्ति ]
जब वर्त्तमानकालीन दर्शन से पूर्वदेश या पूर्व दशा के दर्शनों का ग्रहण न होने पर आप मान 20 लेते हैं कि वर्त्तमान दर्शन का विषय पूर्वदेश-पूर्वपर्याय से विमुक्त है, मतलब पूर्वदेश - पूर्वदशा संनिहित न होने पर भी पूर्वदेशादिवियुक्तता का ग्रहण आप मानते हैं तो उसी प्रकार पूर्वकालादि संनिहित न होने पर भी पूर्वकालसंसृष्टता मान लेने में क्या बाधा है ? तात्पर्य, यह जो आपने कहा है कि “पूर्वकालीन दर्शन की प्रतीति न होने पर वह 'दृष्टता (भूतकालीन दर्शनविषयता)' आदि का भान शक्य नहीं है' यह कथन अयुक्त है। अगर बौद्धमतानुसार दृश्यविषयक दर्शन से अपना ग्राह्य 25 दृश्य और अग्राह्य प्राप्य जिस की दर्शनद्वारा प्रतीति नहीं हुई फिर भी उन दोनों के एकत्व का प्रकाशन माना जाता है, यदि ऐसा न माने तो उस के अविसंवादित्व का भ्रंश हो जाने से प्रामाण्य तूट जाय तो हम भी कहते हैं कि यद्यपि विकल्प से अर्थक्रिया का ग्रहण नहीं हुआ फिर भी अर्थक्रिया समर्थरूप का अभान क्यों ? जिस से कि विकल्प से प्रवृत्ति रुक जाय ? (अर्थक्रिया का ग्रहण न होने पर भी विकल्प से अर्थक्रियासमर्थरूप का भान शक्य होने से, उस से प्रवृत्ति भी 30 निर्बाध हो सकती है जैसे आप के मत में प्राप्य गृहीत न होने पर भी प्राप्य - दृश्य के एकत्व का भान होता । इति तात्पर्य ।)
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