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________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ तद्रूपपरिच्छेदकत्वेन प्रवर्त्तकत्वाऽयोगादिति प्रतिपादनात् । अत एव 'यदि नयनप्रसरमनुसरन्ती प्रथमा मतिर्न तत्त्वं प्रत्येति पश्चादपि नैव प्रत्येष्यति स्मरणसहायस्यापि लोचनस्याऽविषयतयैकत्वे प्रतिपत्त्यजनकत्वात् ' (१३५-६) इत्यादि सर्वं प्रतिक्षिप्तम्, स्थिर-स्थूरार्थावभास्यक्षप्रभवसंवेदनस्य प्राप्तिपर्यवसानफलनिमित्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षतः प्रसिद्धे:, तथापि तत्त्वस्याक्षप्रतिपत्त्यविषयत्वे संवेदनस्य स्वसंवेदनाध्यक्षविषयताऽपि न 5 भवेत् । अबाधितप्रतिपत्तिविषयत्वादिकं च सर्वमन्यत्रापि समानम् । अथ स्वसंवेदनं संवेदनाभावे न दृष्टमिति तत् तद्विषयम्, संवेदनं तु विपर्ययाद् न तद्विषयम् । ननु किं क्षणिक-निरंशैकपरमाण्वाकारसंवेदनाभावे तद् न दृष्टम् उत तद्विपरीतसंवेदनाभावे ? Aयद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, सर्वदा तदभावे एव तस्य दृष्टेः । अथ द्वितीयस्तदा विपर्ययसिद्धिः । यथा स्थिरस्थूराकाराकारसंवेदनाभावेऽभ् ऽभवत् स्वसंवेदनं तद्विषयं सिध्यति तथा स्थिरस्थूरार्थाभावेऽभवत् संवेदनं किं 10 न तद्विषयं सिध्यति येन लोचनाऽविषयत्वं तत्त्वस्य भवेत् ? यथा च पूर्वदेशदशादर्शनानामग्रहणेऽपीदानीन्तन २१२ कोई ( शशशृंगादि) विकल्प वस्तुस्पर्शी नहीं होते। यदि आप यह कहना चाहते हों कि प्रस्तुत चर्चा में जिन नीलादिविकल्पों की बात चलती है वे वैसे नहीं होते तो यह बात असिद्ध है क्योंकि नीलादिविकल्प के अलावा और कोई नीलादिअर्थसाक्षात्कारी अविकल्प है ही नहीं । यह जो कहा था (१३४-११) 'यदि यथाकथंचित् मान लेवे कि विकल्पबुद्धि संमुखस्थजलादि अर्थ को प्रकाशित करता है तो भी 15 अर्थक्रियासमर्थरूप का भान उस में न होने से वह विकल्प जलादि अर्थ में प्रवृत्ति कराने के लिये सक्षम नहीं हो सकता।' वह भी गलत है क्योंकि गहराई से सोचा जाय तो विकल्पमति ही वस्तुतः अर्थक्रियासमर्थस्वरूप की अवबोधिका होने से जलादि में प्रवृत्ति कराने में सक्षम है यह मालूम पडेगा । विकल्प के सामर्थ्य का इनकार करने पर निर्विकल्प तो अर्थक्रियासामर्थ्य वेदक नहीं होने से प्रवृत्ति का ही उच्छेद हो जायेगा । कारण, विकल्पमति के विना और कोई ऐसी सक्षम प्रतीति है नहीं जो अर्थक्रिया 20 सामर्थ्य का वेदन कर के प्रवृत्ति करा सके। पहले यह कह दिया है। इसी तथ्य के आधार पर आप का यह निरूपण भी निरस्त हो जाता है जो आपने पहले कहा था “ (१३५-२६) नेत्र प्रसारण के बाद तूर्त होने वाली (निर्विकल्प ) प्रथम बुद्धि यदि तत्त्व का भान नहीं कर पाती तो बाद में ( होनेवाली विकल्प) बुद्धि भी उस का भान नहीं कर सकेगी, क्योंकि स्मृति सहकृत भी नेत्र का वह ( तत्त्व) विषय न होने से दृष्ट और विकल्पित अर्थ के एकत्व का भान कराने में वह असमर्थ है । ” ... इत्यादि जो 25 कहा है वह इस लिये निरस्त हो जाता है कि स्थिर-स्थूल फलादिअवबोधक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, जो कि उस फल की प्राप्ति कराने में प्रधान निमित्त है, स्वसंवेदिअनुभवप्रत्यक्ष से सुप्रसिद्ध है । उस का इनकार कर के आप तत्त्व को उस प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानेंगे तो फिर संवेदन की स्वसंवेदिप्रत्यक्षविषयता का भी अपलाप करने क्या बाध है ? यदि कहें कि संवेदन की स्वयंसंविदितता तो निर्बाधप्रतीति का विषय होने से उस का अपलाप अशक्य है तो हम कहते हैं कि संवेदन की तत्त्वविषयता भी 30 समानरूप से तथाविध (यानी निर्बाधप्रतीति का विषय ) ही है... इत्यादि सब तुल्यरूप से समज लेना । [ संवेदन में स्थिर - स्थूलअर्थविषयता का उपपादन ] यदि कहा जाय 'स्वसंवेदन और मात्र संवेदन में तफावत है । संवेदन के न होने पर स्वसंवेदन Jain Educationa International — - For Personal and Private Use Only — www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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