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खण्ड - ४, गाथा- १
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तत्रैवाक्षं प्रतिपत्तिमुपरचयतीति व्यवस्थाप्यते अन्यथैकस्तम्भपरिणत्यापन्नैकपरमाणुग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तमक्षं तदपरपरमाणुग्रहणज्ञानजननवत् सकलपदार्थग्राहिज्ञानजननेऽपि प्रवर्त्तेत भेदाऽविशेषात् भवदभ्युपगमेनानन्तरातीतक्षणग्रहणज्ञानजननप्रवृत्तं वा सकलातीतक्षणग्रहणज्ञानजनने वा प्रवर्त्तेत अतीतत्वाऽविशेषात् । अथ यदेव तज्ज्ञाने प्रतिभाति तज्जनने एव तस्य व्यापारः परिकल्प्यते; तदितरत्राऽपि समानम् । न च विशेषणादयस्तदाऽसंनिहिता एवैकान्ततो येन तान् प्रति प्रत्यक्षबुद्धिर्निरालम्बना भवेत्, निरन्वयक्षणक्षयस्य 5 निषिद्धत्वात् कथञ्चिदनुगतस्य च प्रसाधितत्वात् ।
यदपि - 'सुखादिव्यतिरिक्तस्याक्षप्रभवसंवेदनस्यार्थावभासकत्वं प्रतिपादितम् (१३२-८)' तदपि सिद्धसाधनमेव । यच्च 'सुखादिवद् विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभावः' (१३२ -१० ) इति, अत्र यद्यविशेषेण विकल्पमात्रमभिधीयते तदा सिद्धसाध्यता; अथ प्रकृतो विकल्पस्तदाऽसिद्धम् तमन्तरेणापरस्यार्थसाक्षात्कारिणोऽविकल्पस्याभावात् । यदपि 'यदि नाम पुरोवर्त्तिनमर्थं विकल्पमतिरुद्योतयति तथाप्यर्थक्रियासमर्थ- 10 रूपाऽपरिच्छेदाद् न तत्र प्रवृत्तिमारचयितुं क्षमा' (१३४- १) इति, तदप्ययुक्तम्, अर्थक्रियासमर्थरूपस्य तस्या एव परिच्छेदकत्वेन प्रवर्त्तकत्वाद् - अन्यथा प्रवृत्तेरभावप्रसङ्गात्— तामन्तरेण कस्यचित् प्रत्ययस्य से भान नहीं होने से उन सन्तानों का बोध कराने में इन्द्रिय को हम सक्षम नहीं मानते।) ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो स्तम्भज्ञान स्थल में आप को भी वैसी विपदा हो सकेगी । देखिये, एक स्तम्भाकारपरिणामपरिणत एकपरमाणु के ग्रहणप्रवणज्ञानोत्पादन में प्रवृत्त इन्द्रिय यदि दूसरे परमाणु के ग्रहणप्रवणज्ञानोत्पादन में प्रवृत्त 15 होगा (होना ही पडेगा अन्यथा विशालस्तम्भाकार प्रत्यक्ष होगा कैसे ?) तो अन्य समस्त पदार्थग्रहणाभिमुखज्ञान की निष्पत्ति में भी प्रवृत्त होगा क्योंकि एक परमाणु से अन्य परमाणु जैसे भिन्न है वैसे ही अन्य पदार्थ भी भिन्न हैं । अथवा आपत्ति इस प्रकार भी होगी आप के मतानुसार अनन्तर भूतक्षणग्रहणाभिमुखज्ञान के उत्पादन में प्रवृत्त इन्द्रिय समस्त भूतकालीनक्षणों के ग्रहण में अभिमुख ज्ञान के उत्पादन में प्रवृत्त हो जायेगा क्योंकि अनन्तरभूतक्षण जैसे अतीत है वैसे चिर विनष्ट भूत क्षणसमुदाय भी अतीत ही है। इस 20 आपत्ति से बचने के लिये कहा जाय कि स्तम्भाकारपरिणत जिन परमाणुओं का उस ज्ञान में भान होता है उतने के ग्रहणाभिमुख ज्ञान के उत्पादन ही इन्द्रिय व्यापृत्त होती है तो यह बात विशेषणग्रहणाभिमुख ज्ञान के उत्पादन में प्रवृत्त इन्द्रिय के लिये भी समान ही है ।
' विशेषणादि एकान्ततः इन्द्रिय के असंनिहित है' ऐसा भी नहीं है कि जिस से मान लिया जाय कि विशेषणग्राहि प्रत्यक्षबुद्धि निरालम्बन ही है (असत् अथवा अतीतादि विषयक ही है ।) कारण विशेषणादि 25 सर्वथा क्षणिक नहीं किन्तु किञ्चित्कालावस्थायि होते हैं । निरन्वयक्षणनाश का पूर्व में निरसन हो चुका है अतः क्षणिकवाद ध्वस्त हो जाता है। तथा अनेकक्षणों में अनुगत कथंचिद् एक वस्तु की सिद्धि भी पहले की जा चुकी है, अत एव विशेषणादि इन्द्रिय के संनिहित हो सकते हैं ।
[ विकल्पमात्र में अर्थप्रत्यक्षीकरणस्वभाव का निषेध अनुचित ]
यह जो कहा था ( १३२-२९ ) - सुखादि ( सुखानुभवादि) को छोड़ कर जो भी इन्द्रियजन्य संवेदन 30 हैं वे अर्थावभास होते हैं। यह तो सिद्धसाधन ही है नया कुछ नहीं । तथा यह जो कहा था ( १३३सुखादि की तरह विकल्प भी अर्थप्रत्यक्ष करने के स्वभाववाला नहीं है यहाँ कहने का भाव
१) यदि ऐसा हो की सामान्यतः सभी विकल्प वैसे नहीं होते हैं तब तो सिद्धसाधन ही है क्योंकि हर
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